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Tuesday, April 24, 2007

आओ, लड़ाई-लड़ाई खेलें

आओ, लड़ाई-लड़ाई खेलें

लड़ना हमारी संस्कृति और सभ्यता का एक अटूट हिस्सा है। लड़ने का हमारा एक गौरवशाली इतिहास रहा है। अपनी झगड़कला की इस प्राचीन परंपरा से हम इमोश्नली अटैच हैं। हम अनादि काल से लड़-लड़ कर टूट चुके हैं किन्तु हमारा हौंसला देखिए, हम आज भी टूट कर लड़ रहे हैं। लड़ना हमारे लिए एक कला है। हम सब इस कला में पारंगत हैं। रामायण की लड़ाई हो, महाभारत की लड़ाई हो अथवा मुगलों की लड़ाई हो, लड़ाई से भरापूरा हमारा इतिहास रहा है। हमने अंग्रेजी हुकूमत को खदेड़ने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और उसके बाद से आज तक हम अपने लिए ही अपने आप से एक लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं। लड़ाई हमारे लिए एक दिलचस्प खेल बन गया है लेकिन दुर्भाग्य से हम दिलचस्प खेलों में कभी नहीं लड़ते। लड़ते होते तो साउथ अफ्रीका से बेरंग मुंह लटका कर बैंरग कभी न लौटते। खैर, खेलों में प्रतिद्वंदी टीम के खिलाफ न सही, यही क्या कम है कि खेल के मैदान के अलावा हम हर फील्ड में लड़ रहे हैं। लड़ना और लड़ाना राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत हमारा सबसे लोकप्रिय सांस्कृतिक आयोजन है। लड़ाई हमारे खून में है।
हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि लड़ाई-झगड़ा करना अच्छी बात नहीं है, लेकिन हम अपने बच्चों को यह सलाह कदापि नहीं दे सकेंगे। हमारे बच्चों ने पैदा होते ही हमें अस्पताल के लापरवाह रवैये पर डॉक्टरों से लड़ते देखा है। फिर मंहगे डोनेशन और महंगी फीस के मुद्दे पर स्कूल मैनेजमैन्ट से लड़ते देखा है। स्कूल ले जाने वाले साईकिल रिक्शा में धक्का लगवाने पर रिक्शावाले से लड़ते देखा है। मदर डेरी पर दूध लेने के बाद अठ्ठनी के बदले टॉफी थमा देने पर डेरीवाले से लड़ते देखा है। ट्रेनों और बसों में यह साबित करने के लिए कि बच्चे की उम्र तीन साल से कम है, टीटी और कंडेक्टर से लड़ते देखा है। सब्जी के साथ धनिया फ्री देने में आनाकानी करने पर सब्जीवाले से लड़ते देखा है। राशन की लम्बी कतार में घंटों लगने के बाद, अपना नंबर आते ही राशन खत्म होने पर राशनवाले से लड़ते देखा है। एलपीजी गैस सिलेंडर में मिलावट के शक में हॉकर से लड़ते देखा है। बिजली और टेलीफोन का आनप-शनाप बिल भेजने पर बिजली विभाग और दूर-संचार विभाग के बड़े बाबू से लड़ते देखा है। अपनी बाउंड्री के अंदर कूड़ा फेंकने और अपने गेट के आगे गाड़ी पार्क करने पर पड़ोसी से लड़ते देखा है। गनीमत है हमारे बच्चे हमारे साथ दफ्तर नहीं जाते वरना वो वहां भी वो हमें अपने सहकर्मियों के साथ लड़ते देखते। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी जमीन-जायदाद के नाम पर, कभी धन-दौलत के नाम पर, कभी न्याय की खातिर तो कभी रोजगार के लिए, सड़क से लेकर संसद तक, हर रोज, हर घंटे, हर पल, हर मुद्दे पर और हर मोर्चे पर हमारे बच्चे हमें लड़ता हुआ देख रहे हैं।
बच्चों को न लड़ने की सीख देना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी है। कल बड़ी हिम्मत करके मैंने गली के नुक्कड़ पर लड़ रहे दो बच्चों को समझाने का प्रयास किया कि, 'बेटा, मत लड़ो, लड़ना बहुत बुरी बात होती है।', बदले में एक बुनियादी सवाल उछालकर बच्चे ने मुझे निरुत्तर कर दिया, बोला- 'अगर ऐसी बात है अंकल, तो देश को चलाने वाले नेता चुनाव क्यों 'लड़ते' हैं?'

Monday, April 23, 2007

2020 की दिल्ली और 2050 का बिहार

किसी ने यह तस्वीरें मुझे भेजी हैं... सो आपको भी दिखा रहा हूं...
यह है 2020 का बैंगलोर


यह है 2020 का मुंबई


यह है 2020 की नई दिल्ली


यह वह काल्पनिक शहर है जिसे 2020 तक कहीं बसाया जाना है...


और यह है 2020, 2030, 2040, 2050... का बिहार मुझे इस तस्वीर में पहले तो मखौल नजर आया... फिर मुझे इसमें अपनी ही बेचारगी नजर आने लगी... क्योंकि यह तस्वीर भारत की ही तो है और मैं एक भारतवासी हूं...

क्या यह तस्वीर कभी बदल पाएगी...

वैसे बदल तो सकती है...

क्या ख्याल है आपका?

Sunday, April 22, 2007

मेरी एक अप्रकाशित कविता, आप भी पढ़ें...

सालों बाद कोई कविता लिख रहा हूं... यही कोई दस साल बाद... मन के दर्द सहते विचार उद्धेलित होकर जमा हो गए थे, उन्ही के बिखराव को शायद कविता कहने की यह भूल भी हो सकती है...
जो भी है, प्रस्तुत है-


मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।।

जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!

Friday, April 20, 2007

लो, कहानी में ट्विस्ट आ ही गया...

लो, कहानी में ट्विस्ट आ ही गया...
लो, कहानी में ट्विस्ट आ ही गया। वैसे भी छोटे मिंया की शादी में कानफोड़ू संगीत पर ट्विस्ट का इंतजाम तो था नहीं। सो, ट्विस्ट इसी बहाने आ गया। वैसे शादी-विवाहों के अवसर पर ट्विस्ट तो होना ही चाहिए, वैसा नहीं तो ऐसा ही सही। यह बात और है कि कहानी में यह ट्विस्ट कहानी की डिमांड के मुताबिक कतई नहीं था। ऐन शादी से एक दिन पहले एक छरहरी काया ही मायावी बाला का पदार्पण होता है जो यह कहते हुए की दुल्हे राजा ने उसके साथ शादी का वादा करके छल किया है, अपने उल्टे हाथ की कलाई पर सीधा चाकू चला लेती है। बाला मदमस्त है। उसके पैर और जिव्हा दोनों लड़खड़ाएमान हैं। बाला पूरी रात खबरिया चैनलों के कैमरों के समक्ष बड़बड़ाएमान रहती है कि हम दोनों एक दूसरे के बहुत करीब आ चुके थे। वी आर इन लव।
गनीमत है मद में मस्त इस बाला ने यह नहीं कहा कि मैं उसके बच्चे की मां बनने वाली हूं। वरना कहानी पूरी फिल्मी होती। ऐन शादी के मंडप में धुसकर यह कहना कि 'ठहरो यह शादी नहीं हो सकती, मैं दुल्हा बने बैठे अमुक लड़के के बच्चे की मां बनने वाली हूं।', यह न जाने कितनी ही हिट फिल्मों का निहायत ही बासी और उबाऊ प्लॉट है। इस सीक्वेंस के बाद दर्शक इसी जिज्ञासा में बाकी दो घंटे की फिल्म झेल जाता था कि तथातथित पीड़िता के बच्चे का बाप दरअसल है कौन। अंत में पता चलता था कि पीड़िता के पेट में बच्चा नहीं बल्कि तकिया है। पैसों के लालच में किसी के बहकावे में आकर उसने ऐसा किया।
इधर छोटे मियां को घेरने वाली इस बाला के दोस्तों ने भी बताया कि बाला पब्लिसिटी के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। वैसे आजकल किसी भी क्षेत्र में ट्विस्ट के बिना कहानी में क्लॉइमेक्स जमता ही नहीं। मामला शादी का हो, प्यार-मौहब्बत का हो या फिर राजनीति का। कहानी में ट्विस्ट जरूरी है। मोहब्बत, जंग और राजनीति में सब जायज है। बीजेपी के निर्माता-निर्देशक आजकल सीड़ियों से कहानी में ट्विस्ट ला रहे हैं। राहुल बाबा अपने चटपटे बयानों से कांग्रेस की कहानी में ट्विस्ट लाने की जुगत में हैं। राजनीति में ट्विस्ट का फैशन इतना हिट हो चला है कि अब तो ट्विस्ट की ही राजनीति नजर आती है। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में अभी और न जाने कितने ट्विस्ट देखने को मिलेंगे। बस फर्क इतना ही है कि छोटे मियां की शादी के मौके पर बवाल करने वाली मायावी बाला ने अपने ही हाथ की कलाई पर चाकू चलाया और राजनीति में दूसरे की कलाई पर चाकू चलाने का रिवाज है।

Wednesday, April 18, 2007

इस फ़ोटोग्राफ़ ने मुझे हिलाकर रख दिया, आप भी देखिए...

इस फ़ोटोग्राफ़ ने मुझे हिलाकर रख दिया...

यह फ़ोटो विख्यात फ़ोटोग्राफर कैल्विन कार्टर ने खींचा है। इसके लिए उन्हे वर्ष 1994 में फ़ीचर फ़ोटोग्राफी के लिए पुल्तिज़र अवार्ड भी मिल चुका है।
इस फ़ोटो में दिखाया गया है कि भूख से व्याकुल एक अबोध बच्ची रैस्क्यू कैम्प तक पहुंचने से पहले ही बेहोश हो गई है, और एक गिद्ध उसके पास आकर बैठ गया है। फोटोग्राफर कैल्विन इस बच्ची की मदद भी करना चाहते थे लेकिन उनके दोस्तों ने उन्हे बच्ची से होने वाली खतरनाक बीमारी के संक्रमण की आशंका के चलते रोक दिया। क्या इस बच्ची को गिद्ध ने अपना ग्रास बना लिया होगा? और क्यों वो अपने दोस्तों की बातों में आकर इस बच्ची की मदद नहीं कर सके? इस फ़ोटो को खींचने के बाद इन्ही सवालों से परेशान कैल्विन इतने अवसाद में घिर गए कि उन्होने इस फ़ोटो को लेने के मात्र तीन महीने बाद आत्महत्या कर ली। क्या यह तस्वीर और इसे लेने वाले कैल्विन मानवीय संवेदनाओं के पुनर्जागरण को लेकर एक सार्थक बहस का विषय नहीं हैं....?

राहुल बाबा के नाम एक गुप्त चिट्ठा

राहुल बाबा के नाम गुप्त चिट्ठी

विडंबना देखिए की इस देश में कुछ भी गुप्त नहीं रहता। मैंने यह चिट्ठी अपने राहुल बाबा के नाम गुप्त रूप से लिख कर सामान्य डाक से भेजी थी लेकिन यह भी सार्वजनिक हो गई। चौंकिए मत, आजकल गुप्त चिट्ठियां सामान्य डाक से भेजना ही सुरक्षित रह गया है। लेकिन बावजूद इसके यह चिट्ठी सार्वजनिक हो गई। दरअसल हुआ यों होगा कि डाकिए ने लिफाफे पर श्री राहुल गांधी लिखा देख कर समझा होगा कि शायद मोस्ट एलिजिबल बैचलर अर्थात सर्वाधिक योग्य कुंवारे राहुल बाबा के लिए किसी सोणी कुड़ी का बॉयोडाटा आया होगा, चलो खोलकर देखते हैं। वैसे भी आजकल बड़े-बड़ों की शादी-ब्याह को लेकर छोटे-मोटों के कान और पेट में खुजली रहती है। लिज़ हर्ले संग अरुण नायर के बाद अभिषेक संग एश्वर्या की शादी को लेकर भी लोग बावरे हुए जा रहे हैं। हालत यह है कि अभिषेक और एश्वर्या आपस में एक-दूसरे को इतना नहीं जानते होंगे जितना लोग उन दोनों के बारे में जानते हैं।
डाकिए ने सुन रखा होगा कि आजकल राहुल बाबा पर भी शादी का खासा प्रेशर है। बेचारा डाकिया हर जिज्ञासू भारतीय की तरह जानना चाहता होगा कि कैसी होगी राहुल की ड्रीम गर्ल? कहां कि होगी, भारत की या विदेश की? कहां होगी उनकी शादी, भारत में या इटली में? क्या पहनेंगे वह, भारतीय परिधान या पश्चिमी परिधान? शादी में कौन-कौन बुलाया जाएगा? क्या-क्या पकेगा? वगैरह-वगैरह। आजकल हर भारतवासी ख्यातिप्राप्त कुंवारों की शादी को लेकर अटकलें लगाने में ही तो बिजी है और अटकलों की जिज्ञासा के इसी प्रवाह चिट्ठी खोलने वाले डाकिए को क्या पता कि राहुल बाबा के पास शादी-वादी के लिए टाइम-शाइम ही कहां है, वह तो आजकल उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की नइया पार लगाने के लिए चप्पू चला रहे हैं। बहरहाल, अब जब यह चिट्ठी खुल ही गई है तो इसे आप भी पढ़िए-
प्यारे राहुल बाबा,
जब तक सूरज-चांद रहेगा, तय है आपका नाम रहेगा। अब नाम का तो ऐसा है न राहुल बाबा कि बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा। टेंशन लेने का नहीं राहुल बाबा, जो मन में आए एकदम बिंदास बोल देने का कहीं पर भी। वैसे भी बाबा आजकल आप जो गर्मागरम, तले और भुने बयान परोस रहे हैं न, सच कहता हूं, सुबह-सुबह अखबार की डिस्पोसेबल प्लेट में आपके चटपटे बयानों का नाश्ता करके तबीयत प्रसन्न हो जाती है कसम से। आपका बाबरी वाला बयान तो मैंने पूरे एक हफ्ते तक नाश्ते में, लंच में और डिनर तक में खाया। आपका बयान न हुआ बासी कढ़ी हो गया, जितना पुराना हो रहा है उसका उतना ही जायका बढ़ रहा है। बस आप विरोधियों द्वारा अपने बयानों का तीयापांचा किए जाने पर आपा मत खो बैठिएगा। क्योंकि बयान का विरोध करना तो राजनैतिक कुश्ती के अखाड़े का सबसे पहला नियम है।
खैर, मैंने यह चिट्ठी आपको यह बताने के लिए लिखी है कि मुझे आपकी यह बात सबसे अच्छी लगी कि गांधी परिवार ने जो ठाना उसे हासिल भी किया। अब देखिए न, आपने ठाना कि आपको ऐसा बयान देना है और आपने दिया। मुझे तो आपके माध्यम से यह भी पहली बार पता चला कि देश की आजादी भी आपके परिवार ने ठान कर हासिल की थी। वरना मैं तो अब तक न जाने कितने क्रांतिकारियों को देश की आजादी के लिए जिम्मेदार मानता था। पाक पर दिया गया आपका बयान भी लाजबाव रहा। और वैसे उस समय आपके परिवार को क्या पता था कि 1971 में बनाया गया बांग्लादेश 2007 के वर्ल्ड कप में भारत को हरा देगा। लोग कुछ भी कहें लेकिन आपके परिवार द्वारा उस समय उठाया गया कदम आज टीम इंडिया की पतली हालत को सुधारने में अहम भूमिका निभा सकता है। टीम इंडिया में आज जो उठापटक हो रही है यह वैसे तो बहुत पहले ही होनी चाहिए थी लेकिन ऑल क्रेडिट गोज टू योर फैमिली, न हम बांग्लादेश से हारते और न हमें पता चलता कि हमारी हालत क्या है।
आपको तो फौरन से पेशतर बीसीसीआई में कोई दमदार पद दिए जाने की सिफारिश की जानी चाहिए। खेल और राजनीति की दो नावों पर पैर रखकर अपना बेड़ा पार कैसे लगाया जाता है इसकी ट्रेनिंग आप शरद पवार साहब से ले सकते हैं। बहरहाल, अपने बेबाक बयानों के लिए बधाई स्वीकारें। आगे भी आपसे ऐसे ही बयान अपेक्षित हैं। बस आप अपने पार्टी प्रवक्ताओं को इतना समझा दें कि आपके सीधे-सपाट बयानों की लीपातोपी करने के चक्कर में उन्हे तोड़े-मरोड़े नहीं। आखिर में इतना ही कहना चाहता हूं कि 'जब तक सूरज-चांद रहेगा, तय है आपका नाम रहेगा।', मेरी ओर से अपनी शान में इस नारे को पचास हजार से गुणा कर लें।
आपका शुभचिंतक।

(आज दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

Tuesday, April 17, 2007

अबदुल्ला दीवाने का चिट्ठा

अबदुल्ला दीवाने का चिट्ठा...
लख-लख बधाइयां। चिरंजीव अभिषेक और सौभाग्यकांशिनी ऐश्वर्या की शादी के निमंत्रण बंटने की खबर से रोमांचित हुआ जा रहा हूं। स्वाभाविक भी है, भारतवासी हूं, जरा-जरा सी बात पर रोमांचित हो जाया करता हूं। बिग बी से लेकर केबिल टीवी की रिपोर्टर तक मुझे रोमांचित ही तो कर रहा है। रोज मैं किसी न किसी बात पर रोमांचित हो ही जाता हूं। मैं दोनों ही स्थितियों में रोमांचित रहता हूं। टीवी ऑन होने पर भी और टीवी ऑफ होने पर भी। मेरा रोमांचित होना छोटे-बड़े खबरिया चैनलों के लिए टीआरपी का अचूक फंडा बन गया है। आखिर मैं रोमांचित क्यों न होउं। यह मेरे रोमांच का ही प्रताप है जो अभिषेक और ऐश्वर्या की फिल्मों से ज्यादा उनकी शादी हिट हो रही है। अब शादी का फार्मूला फिल्मों में भी काम देगा। फिल्में भी हिट होंगी। खैर, मुझे तो वैसे भी फिल्मों से ज्यादा दिलचस्पी अभिषेक भईया और ऐश्वर्या भाभी की शादी में है। हां, एक जमाने में मैं भी खूब फिल्में देखा करता था स्कूल-कॉलेज में, क्लॉस से उड़ी मार कर। फिल्में देखने का मन तो अब भी करता है लेकिन महंगी टिकट मेरी औकात से बाहर हो चलीं हैं। पहले ब्लैक में भी टिकट खरीदने की औकात हुआ करती थी, अब तो महंगाई ने बुकिंग खिड़की से भी टिकट खरीदने की हिम्मत नहीं छोड़ी है। ऐसे में इज्जत बचाने को अक्सर कह देता हूं कि अब फिल्मों में दिलचस्पी ही नहीं रही।
सच पूछिए तो मुझे फिल्में न देख पाने का मलाल भी नहीं है क्योंकि इधर मैं नामी-गिरामी लोगों की आलीशान शादियों में शरीक होकर ही खुश हो लेता हूं। खबरिया चैनलों के संवाददाताओं के साथ मैं न जाने कितनी ही शादियों में दीवाना हो चुका हूं। अपने वीरू की शादी में तो मैं टीवी के सामने अपने बिस्तर पर खड़ा होकर देर तक नाचा भी था। क्या कहा, कौन वीरू? अरे, वीरू को भूल गए आप? अपना नजफगढ़ का सुल्तान वीरेन्द्र सहवाग। ला हौल विला कूवत, क्या जमाना आ गया है, बताईए आप लोग अपने वीरू को भूल गए। बिलकुल वैसे ही जैसे वीरू क्रिकेट खेलने भूल गया। चलिए, दूसरी शादी की बात करता हूं। लिज हर्ले और अरुण नायर की शादी में तो टीवी के सामने बैठ कर तीन दिन का वासी भोजन करना भी मुझे किसी पंच सितारा होटल के भोजन जैसा आनंद प्रदान कर रहा था। मैं टीवी के और करीब आकर भोजन करने लगा। यूं लगा मानों लिज से सट कर भोजन कर रहा हूं।
सच्ची कहता हूं, अपने अभिषेक भईया और ऐश्वर्या भाभी की शादी को लेकर भी मैं दीवाना हुआ पड़ा हूं। कहां होगी शादी, कैसी होगी शादी, मेरे अलावा और कौन-कौन आएगा, अभिषेक भईया कब-कब क्या-क्या पहनेंगे, ऐश्वर्या भाभी का लंहगा कैसा होगा, वगैरह-वगैरह। अब मुझे टीवी पर ऐसी खबरों के अलावा कुछ भाता ही नहीं। टीवी के एक तरफ बेगानी शादियां हैं और दूसरी तरफ मैं अबदुल्ला दीवाना। मेरी बधाई स्वीकार हो अभिषेक भईया और ऐश्वर्या भाभी।