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Thursday, November 4, 2010



मेरा पहला व्यंग्य संग्रह 'चौथा बंदर' आ चुका है।


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Friday, October 1, 2010

सारे पदक हमारे हैं

बस, एक-दो देश और कॉमनवेल्थ गेम्स में आने से तौबा कर लें तो समझो अपनी लॉटरी लग गई। अपने खिलाड़ियों की तो क़सम से निकल पड़ेगी। कोई प्रतिद्वंदी ही ना बचेगा तो अपन निर्विवाद विजेता होंगे। हर स्टेडियम में, हर मैदान में, हर ट्रैक और हर मोर्चे पर अपन बिना मुकाबले के बस पदक लेने जाएंगे। सारे पदक हमारे होंगे। मीडिया निहत्थे कलमाडी की बेवजह ही थू-थू करने की कसम उठा चुका है। अरे, ज़रा पल भर के लिए दम लेकर सोचो तो सही, अपने कलमाडी साहेब बिलकुल सही फरमा रहे हैं। वो हमेशा कहते हैं कि खेल अभूतपूर्व सफल होंगे। सही तो है। इतिहास गवाह है, इससे पहले क्या कभी ऐसा हुआ है कि सारे पदक मेज़बान देश ने ही जीते हों।

स्पर्धाएं ताक़त से नहीं, दिमाग़ से जीती जाती हैं। सलमान खान बताता तो है एक बनियान के विज्ञापन में। कलमाडी वही बनियान तो पहनते हैं। अपने खिलाड़ियों को विजय दीनानाथ चौहान बनाने के लिए कलमाडी बाक़ी देशों के खिलाड़ियों के दिमाग़ पर वार कर रहे हैं। मुक्केबाज़ अखिल कुमार के बैठते ही उनका बिस्तर क्या टूटा, मीडिया, कलमाडी पर बिस्तर से बुरी तरह टूट पड़ा। अरे भईया, यही तो रणनीति है। ये तो अखिल कुमार का प्रोमो था, जिसे देखकर प्रतिद्वंदी मुक्केबाज़ों के छक्के छूट गए होंगे। जिस मुक्केबाज़ के बैठने से ही पलंग चरमरा जाए, वो रिंग में किसी की क्या गत बनाएगा किसी की। क्यों छूट गए ना पसीने?

निर्माण में घटिया सामग्री वाली बात भी कॉमनवेल्थ गेम्स का प्रोमो है। जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के पास वाला फुटओवर ब्रिज तो हमने गिराने के लिए ही बनवाया था भई। बाक़ी देशों को यह बताने के लिए की देख लो हमने तो सब ऐसे ही बनाया है। इसमें भी कलमाडी की दूरदर्शिता प्रशंसनीय है। सभी स्पर्धाओं में प्रतिद्वंदियों को ध्यान स्टेडिम की छत और दीवारों पर ही लगा रहेगा कि कौन सी छत जाने कब गिर जाए, कौन सी दीवार पता नहीं कब ढह जाए और हमारे खिलाड़ियों को प्रतिद्वंदियों के इसी डर का लाभ मिलेगा, क्योंकि डर के आगे जीत है। डरेंगे वो, जीतेंगे हम।

ऐसे ही खिलाड़ियों को डेंगू, सांप और कुत्तों से डराने की रणनीति भी कॉमनवेल्थ गेम्स की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। ये सब तो कॉमनवेल्थ गेम्स के ऑफ़िशियल प्रोमो हैं। सो, चियर अप विद कलमाडी।
(आज 'हिन्दुस्तान' में प्रकाशित)

Wednesday, September 29, 2010

‘या तो राम रहेगा या रहीम’

कल फैसले का दिन है। राम और रहीम दोनों कटघरे में होंगे। विडंबना ये है कि राम और रहीम दोनों को ही फैसले से कोई लेना-देना नहीं है। सियासतदानों की चाल में फंसे राम-रहीम कल जुदा हो जाएंगे। या तो राम रहेगा या रहीम। दोनों का एक साथ रहना कुछ फिरकापरस्तों को मंज़ूर नहीं है। ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर अदालत फ़रमान सुना देगी। जिन मालिकों के हक़ में फैसला आएगा वो भी ज़मीन को ना तो स्वर्ग ही ले जा पाएंगे और ना जन्नत में। नरक और दोज़ख में भी नहीं ले जा पाएंगे। लेकिन फ़ैसले को लेकर उनके ख़ून में उबाल है।

रहनुमाओं का ख़ून खौल रहा है, तो आम आदमी की रगों में फैसले को लेकर ख़ून जमता जा रहा है। लोग राशन-पानी जमा कर रहे हैं। जिनके लिए मंदिर-मस्ज़िद से ज़्यादा दो जून की रोटी ज़रूरी है वो परेशान हैं। उनका पेट ना मंदिर भरता है ना मस्ज़िद। कल क्या होगा किसको पता। लेकिन अनिष्ट की आशंका से सबकी आंखे और बाज़ू फड़फड़ा रहे हैं।

जो शिखंडी इसे जन भावनाओं के सम्मान की लड़ाई बता रहे हैं, वो भी जानते हैं कि जन भावनाएं केवल शांति और सौहार्द से जुड़ी है, मंदिर-मस्ज़िद से नहीं। कल का फैसला क्या होगा? फैसले के बाद क्या होगा? कोई नहीं जानता। जिन सफ़ेदपोशों ने कभी मंदिर-मस्ज़िद का सम्मान नहीं किया, वो कल आने वाले अदालती फैसले का सम्मान करने की बात कर रहे हैं।

मेरी मां पूछ रही है कि अगर सबको शांति ही चाहिए और सब फैसले का सम्मान ही करने वाले हैं, तो देश में हाई अलर्ट क्यों है? क्या जवाब दूं....?

Monday, September 27, 2010

बाढ़ का कवरेज बिलकुल Live

टीवी पर दिखाई जा रही बाढ़ सचमुच की बाढ़ से ज़्यादा ख़ौफ़नाक होती है। हम बाढ़ को डिफ़रेंट-डिफ़रेंट एंगल से दिखाते हैं। पूरे वैरिएशन के साथ दिखाते हैं। फिर भी ना जाने क्यूं लोग स्पॉट पर ही चले आते हैं तमाशा देखने। बाढ़ का लाइव कवरेज कर रहा “बाल की खाल” चैनल का रिपोर्टर बकलोल कुमार परेशान हो उठा है। यार, ये लोग यहां मजमा क्यूं लगाते हैं? यहां कोई ड्रामा तो चल नहीं रहा। अरे एक तो हम अपनी जान जोखिम में डालकर नदी के पानी में कमर तक उतर कर ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इस बाढ़ ने किसकदर लोगों का जीना मुहाल किया हुआ है, और ये तमाशबीन हैं कि हमारा ही जीना मुहाल किए दे रहे हैं।
पानी में कमर तक डूबा रिपोर्टर दमफुलाऊ इस्टाइल में नदी का घटता-बढ़ता जलस्तर बता रहा है। ‘आप देख सकते हैं कि पिछले दो घंटे से में यहीं खड़ा हुआ हूं और दो घंटे पहले जो पानी मेरी बेल्ट से नीचे बह रहा था वो अब मेरी बेल्ट से ऊपर बह रहा है। इससे आप ख़ुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि नदी का जलस्तर किस तेज़ी के साथ बढ़ रहा है।’ रिपोर्टर का एलान सुनकर तमाशबीन परेशान हैं। वो तो ठीक है कि नदी का जलस्तर बढ़ रहा है, लेकिन बाढ़ कित्थै है भाई? हम तो टीवी पर बाढ़ देखकर बाढ़ को ढूंढते हुए यहां तक आ पंहुचे हैं।
ब्रेक के दौरान और गहरे पानी में उतरता हुआ रिपोर्टर झल्ला उठा है। अरे अंधे हो क्या सब के सब, देखते नहीं नदी में बाढ़ आई है। नदी पगलाई हुई है। नदी का पानी लोगों के घरों में घुस रहा है। लोग फिर अचंभित हैं। किसके घर में घुस रहा है भाई पानी ? पानी घरों में कहां घुस रहा है, बल्कि लोग ही तो अपना घर लेकर पानी में घुस गए थे। ये बात और है कि तब नदी सूखी पड़ी थी। और रही बात इलाके में पानी घुसने की तो नदी को दोष क्या देना। अभी तो पिछली बरसात का जमा पानी ही मोहल्ले से नहीं निकल पाया है। रिपोर्टर सबको शत्रुघन सिन्हा स्टाइल में ‘ख़ामोश’ करा देता है। वो ब्रेक से वापस लौट रहा है।
‘जैसा कि आप देख सकते हैं, बाढ़ का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। पानी मेरी पसलियों को छू चुका है। ख़तरे के निशान से अब बहुत ऊपर बह रहा है पानी।’ लोग रिपोर्टर की बदहवासी से किनारे पर खड़े-खड़े कांप रहे हैं। रिपोर्टर ‘भागो पानी आया’ की चेतावनी जारी कर रहा है। लोग कंफ़्यूज़िया रहे हैं कि पानी शहर में घुस रहा है या रिपोर्टर पानी में। शहर में बाढ़ लोग पहले भी देख चुके हैं, लेकिन नदी में बाढ़ का ये नज़ारा उनके लिए बिलकुल नया है। शहर के लोग अपना शहर नदी में डूबा देखने की उत्सुकता में नदी के मुहाने तक खिंचे चले आए हैं। लोग नहा-धोकर पूरी तैयारी के साथ बाढ़ देखने आए हैं। गोया, बाढ़ नहीं मेला देखने आए हों। सफ़ेद कुर्ता-पायजामा, रंगीन पैंट-शर्ट, क्रीम, पाउडर और लिपस्टिक की भरपूर वैराइटी देखने को मिल रही है।
रिपोर्टर उफ़नती नदी को आपदा बता रहा है लेकिन नदी का सैलाब पिछले चार दिनों से वरदान साबित हो रहा है। विश्वास ना आए तो भुट्टे वाले चचा, चाट-पकौड़ी वाले बंटी, पान-बीड़ी-सिगरेट वाले राजू और बर्फ़ के गोले वाले घीसू से पूछिए। ये लोग पहले दिन औरों की तरह ही बाढ़ का प्रकोप देखने आए थे। समझदार थे, दूसरे दिन से अपना खोमचा लेकर आने लगे। इनके लिए प्रकोप, स्कोप में बदल गया। इतनी बिक्री हो रही है कि हाथ-पांव फूले हुए हैं।
हाथ-पांव तो ख़ैर रिपोर्टर के भी फूले हैं। रिपोर्टर दर्शकों को नदी में डूबा शहर दिखा रहा है और लोग नदी में डूबा रिपोर्टर इंज्वॉय कर रहे हैं। रिपोर्टर किसी जान जोखिम ख़तरा निशान वाली जगह खड़े होकर डूबते लड़खड़ाते हुए, दर्शकों को ये बताना चाहता है कि शहर के लोग कितनी मुसीबत में हैं और किनारे पर सौ-सौ रुपए घंटे पर दो गोताख़ोर सिर्फ़ इसलिए तैनात हैं कि रिपोर्टर अगर स्टंट करते-करते कहीं ख़ुद मुसीबत में फंस जाए तो गोता खा चुके रिपोर्टर की गोता मार कर जान बचाई जा सके। ये देखिए- ‘ये भी डूब गया, वो भी डूब गया, ये भी तबाह, वो भी तबाह।’ रिपोर्टर इस तथातथित बाढ़ में सब कुछ डुबा देने पर आमादा है। और किनारे पर खड़े लोग अपने मोबाइल से बाढ़ की बजाए रिपोर्टर की तस्वीरें उतार रहे हैं। उनके लिए रिपोर्टर, बाढ़ से ज़्यादा बड़ा अजूबा है।
दूसरे ब्रेक में रिपोर्टर नदी में और अंदर उतरने की कोशिश करता है। तभी भीड़ में से कोई फ़िकरा कसता है, ‘आगे मत जाना जनाब, कुतुब मीनार से पैर उलझ जाएगा।’ भीड़ सम्वेत स्वर में अट्ठाहस कर उठती है। फिकरों का मिज़ाज बदलता जा रहा है लेकिन रिपोर्टर का अंदाज़ नहीं बदलता। वो बाढ़ पर ताज़ा अपडेट देकर ब्रेक ले लेता है- ‘बाल की खाल चैनल पर जारी है बाढ़ का ये कवरेज बिलकुल Live’

(आज 'नवभारत टाइम्स' में प्रकाशित)

Tuesday, August 31, 2010

ये ए. आर. रहमान कौन है....?

अरे भई... ये ए. आर. रहमान कौन है? क्योंकि जिस रहमान को हम जानते हैं वो तो इस देश का सबसे रचनात्मक संगीतकार है। सबसे महान। और हम ये भी जानते हैं कि एक कलाकार तभी महान बनता है, जब वो एक अच्छा इंसान हो। रहमान भी इसलिए महान हुए। लेकिन ये रहमान कौन है? ये ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’ वाला। ये वो रहमान तो नहीं है। कहीं से भी नहीं है। ये वो ऑस्कर लाने वाला रहमान हो ही नहीं सकता।

अख़बारों में ख़बर छपी कि रहमान ने कॉमनवेल्थ गेम्स का एंथम बनाने के लिए 15 करोड़ रुपयों की मांग की। सौदा साढ़े पांच करोड़ में पटा। और बन गया, ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’। उम्मीद थी कि रहमान जादू कर देंगे। जैसा कि वो करते आए हैं। उम्मीद थी कि शकीरा के वाका-वाका की नानी याद आ जाएगी। लेकिन हो गया अपना ही टांय-टांय फिस्स। अब थू-थू हो रही है। सवाल उठ रहे हैं कि इस गीत का मुखड़ा ही बेहद अजीबोग़रीब है। इसमें हिन्दी ही सही नहीं है। ना संगीत की कसौटी पर खरा, ना गीत की कसौटी पर और ना रोमांच की कसौटी पर।

कॉमनवेल्थ गेम्स के वरिष्ठ उपाध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा इस गीत को सुनकर भनभना रहे हैं। कांग्रेस वाले भी मुंह बिचकाए घूम रहे हैं। पता नहीं शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी और उनके मंत्री समूह ने इस गीत को पास कैसे कर दिया?

लेकिन शिकायत इन राजनेताओं से नहीं है। इनकी तो ज़ात ही ऐसी है। शिकायत तो रहमान से है। जो 15 करोड़ और साढ़े पांच करोड़ के गीत में फ़र्क कर गए। कॉमनवेल्थ गेम्स का एंथम बनाने के लिए रहमान पर कोई दबाव नहीं था। कोई मजबूरी भी नहीं थी उनकी। मना कर देते। नहीं बनाऊंगा गीत अगर 15 करोड़ से एक पैसा भी कम दोगे तो। कम से कम अपने फ़न और देश के साथ धोखा करने के इल्ज़ाम से तो बच जाते। पंद्रह से साढ़े पांच करोड़ की बार्गेनिंग में अपना स्तर भी गिरा लिया। और अगर इतने ही महान हैं रहमान तो देश के सम्मान और गौरव(?) की ख़ातिर मुफ़्त में ही बना देते गीत। बिना पैसे और पुरुस्कार का लालच किए। तब वो शायद और भी महान कहलाते। पैसा कमाने के और भी विकल्प और अवसरों की कमी तो है नहीं रहमान को।

लाख़ों-करोड़ो के फेर से कहीं ऊपर उठ चुके रहमान ने साढ़े पांच करोड़ में बनाया भी तो क्या, ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’। मतलब ये कि अगर डील एक करोड़ में तय होती तो क्या रहमान कोई ‘भोजपुरी’ गाना दे देते। दे ही देते शायद। वैसे भी रहमान कोई भोजपुरी गाना बनाएंगे तो कम से कम लागत तो एक करोड़ ही आएगी। तामझाम तो पूरा लगाएंगे ही ना। देखा आपने, तंज़ ही तंज़ में कितनी सीरियस बात सामने आ गई। सीरियसली कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए कोई भोजपुरी गाना ही होना चाहिए था। इससे एक तो हिन्दुस्तान की इस अहम क्षत्रीय भाषा को एक जायज़ मुकाम, अंतर्राष्ट्रीय पहचान और सम्मान भी मिल जाता और दूसरा भोजपुरी गीत बेशक़ रहमान के ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’, से कहीं बेहतर भी होता।

Sunday, August 15, 2010

पीपली लाइव का इतना पोस्टमॉर्टम क्यों...?

क्या आमिर खान किसी फ़िल्म से अपना नाम जोड़कर उसे एक अमर कृति बना सकते हैं...? शायद नहीं...। मेरा मानना है कि कोई भी फ़िल्म सिर्फ़ दर्शकों की नज़र-ए-इनायत पर जीती या मरती है। अरे... बाक्स ऑफ़िस गवाह है, कि आमिर ख़ुद अपनी कई फ़िल्में उसमें हीरो होते हुए भी नहीं बचा पाए थे। लेकिन देख रहा हूं कि मीडिया के कुछ अंधविश्वासी लोग लगातार ये कह रहे हैं कि अगर आमिर का नाम इस फ़िल्म से नहीं जुड़ता तो इसका भविष्य अंधकार में होता। ऐसा नहीं है भाई, फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' को किस आमिर खान ने प्रमोट किया था? फ़िल्म बिना किसी सैलिब्रिटी स्टेट्स के हिट हुई या नहीं।

'पीपली लाइव' के बारे में ये कथित बुद्धिजीवी कहते फिर रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या और मीडिया का मज़ाक बनाया गया है। मैं भी मानता हूं कि इस फ़िल्म में एक गंभीर विषय को थोड़ा मज़ाहिया लहजे में पेश किया गया लगता है, लेकिन वो सब वास्तविकता के धरातल पर है। सब कुछ सिचुएशनल है, जिसे देखकर हंसी आ जाना इंसान की स्वाभाविक प्रवृति का एक पक्ष है। इस फ़िल्म में किसी किरदार, किसान या विषय की खिल्ली नहीं उड़ाई गई है.... ये तो आलोचक हैं, जो ख़ुद को हंसने से नहीं रोक पाए, फ़िल्म देखते हुए कुछ देर बाद उन्हे लगता है कि अरे वो तो ख़ुद पर ही हंस रहे हैं, और जब वो किसी तरह अपनी हंसी रोक भी लेते हैं तो ऑडिटोरियम में दर्शकों की हंसी उन्हे मुंह चिढ़ाती है। लेकिन ये दोष तो हंसने वालों का है ना, ना कि फ़िल्म बनाने वालो का।

अब देखिए, फ़िल्म की शुरुआत में ही बुधिया और नत्था अपनी ज़मीन चले जाने की कल्पना मात्र से परेशान हैं.... ऐसे में नत्था जो बुधिया के पीछे चल रहा है... गीत गुनगुनाने लगता है.... तभी बुधिया पीछे मुड़कर कहता है कि ‘ससुर यहां गां_ फटी पड़ी है और तुझे गाना सूझ रहा है।’, मेहरबानों-कद्रदानों अब ज़रा बताना कि इस सवांद में ठहाका लगाने वाली क्या बात है..? जबकि सिनेमाहॉल में इस सवांद पर ज़ोरदार ठहाका लगता है। अरे ज्ञानियों, दिन में ना जाने कितनी बार दफ़्तर में किसी ज़रूरी काम के दबाव में अपने सहकर्मियों से ऐसा बोलते होंगे आप... तो क्या आप कॉमेडी कर रहे होते हैं..? या फिर अपनी झिझक मिटाने को और अपने ठहाके को जस्टीफ़ाई करने के लिए.... आप फ़िल्म को दोष देकर ये सोच रहे हो कि आपने तो आमिर, अनुषा और महमूद की क्लास ले ली।

माफ़ी चाहूंगा, लेकिन क्रांति लाने का दावा करने वाले टीवी के कुछ पत्रकार जहां सालों की वरिष्ठता कमाने के बाद भी एक अच्छी स्टोरी कवर नहीं कर पाते... अपनी स्टोरी की स्क्रिप्ट तक नहीं लिख पाते, वहां पत्रकार रहे अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारूकी ने एक गंभीर विषय पर लाजवाब फ़िल्म बनाई.... एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने के लिए देश के दर्शक टूट पड़े हैं। फ़िल्म के मेकर पहले ही जानते होंगे कि उन्हे कुछ अधपके दिमागों की आलोचनाओं से दो-चार होना पड़ेगा। लेकिन की फ़र्क पैंदा है। जो मीडियाकर्मी इस फ़िल्म की आलोचना कर रहे हैं उन्हे बता दूं कि सीधा सा सिद्धांत है, आपको लगता है कि पीपली लाइव एक बकवास फ़िल्म है, तो केवल आपके बकवास कह देने से फ़िल्म की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाएगा, क्योंकि कई बार बकवास दिखाने की आलोचनाएं झेलने के बाद भी मीडिया की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाता है? आप फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' पर क्यों खामोश रहे, जबकि उस फ़िल्म में भी पत्रकारों की भूमिका घेरे में ही दिखाई गई है। बताया गया है कि गैरज़िम्मेदाराना पत्रकारिता किस तरह विध्वंस का कारण बन सकती है। लेकिन कुछ भाईलोग इसलिए परेशान हैं क्योंकि फ़िल्म 'पीपली लाइव' देखकर सिनेमाहॉल से बाहर निकलते शायद उन्हे शर्म महसूस हुई है। आईना देखकर डरना नहीं, संवरना चाहिए।

और फिर क्या ये सच नहीं है कि इस फ़िल्म को लेकर मीडिया का इंटरेस्ट भी आमिर खान में ही ज़्यादा रहा। आमिर का नाम जोड़कर फ़िल्म की सबसे ज़्यादा पब्लिकसिटी भी तो मीडिया ने ही की। आमिर से बड़ा कोई और नाम भी तो इस फ़िल्म से नहीं जुड़ा था। रही बात निर्देशक के काम की तारीफ़ की तो वो तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद की ही बात है, और फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद अनुषा और महमूद को किसने नहीं जाना।

आमिर ने इस संबंध में पूछे गए सवाल पर हमारे चैनल में सही कहा था कि अनुषा ने इस फ़िल्म में किसी को नहीं छोड़ा। कोई राजनेता इस फ़िल्म को देखेगा तो उसे लगेगा कि किसानों, मीडियावालों और पुलिसवालों के बारे जो दिखाया गया वो तो एकदम ठीक है लेकिन हमारी छवि को नुकसान पहुंचाया गया है। और ऐसा ही पुलिसवालों, मीडियाकर्मियों और किसानों को भी लग सकता है। और यही तो लग रहा है।

और जो लोग ये कह रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर विषय का मज़ाक बनाया गया है, वो अपनी विशलेषणात्मक प्रतिभा का लाभ उठाते हुए ये क्यों नहीं सोचते कि इस फ़िल्म में ये दिखाया गया कि किसी के बहकावे में आकर कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए, जैसा नत्था और बुधिया ने उठाया। और फिर मेले-तमाशे वालों ने उठाया, मीडिया ने उठाया, नेताओं ने उठाया। बेचारे लोग किस तरह से अव्यवस्था के संक्रमण का शिकार हो जाते हैं और व्यवस्था कैसे किसी कि मजबूरी का फ़ायदा उठाती है ये फ़िल्म की थीम है। ग़रीब, दबे-कुचले लोग इस देश में रहनुमाओं के लिए एक लतीफ़ा ही तो हैं। वरना किसे न्याय मिला है आज तक..? क्या ग़लत कहती है फ़िल्म की यहां मरने के बाद तो मुआवज़ा मिलता है लेकिन किसी को कुव्यवस्था से प्रताड़ित होकर मरने से रोकने के लिए कोई योजना नहीं है। ये फ़िल्म ऐसे किसानों के लिए काम करने का दावा करने वाले ngo’s पर भी निशाना साधती है।

फ़िल्म की महिला रिपोर्टर भी तो फ़िल्म में पीपली गांव के स्थानीय रिपोर्टर से कहती है कि ‘अगर तुम्हे PUBLIC INTEREST में ख़बर की अहमियत को अंदाज़ा नहीं है तो I M SORRY, U R IN THE WRONG PROFFESION’ और बाद में उस संवेदनशील स्थानीय पत्रकार की मौत हो जाती है। मैं अब तक नहीं समझ पाया हूं कि अनुषा ने फ़िल्म में इस सीक्वेंस के ज़रिए एक फ़िल्मी किरदार की मौत दिखाई है या पत्रकारिता की मौत का संकेत दिया है।

माफ़ कीजिएगा, पीपली लाइव पर ये मेरी नितांत निजी राय हो सकती है।

Friday, August 6, 2010

कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?

दिन में कई बार ऐसा लगता है जैसे रे-बैन का मेरे वो चश्मा मुझे याद कर रहा होगा। रो रहा होगा। वो ना भी रो रहा हो लेकिन उसकी याद में मेरी आंखें ज़रूर नम हो जाती हैं। हंसने की बात नहीं है। कुछ चीज़े बेजान होती हैं, लेकिन उनमें जान बसने लगती है। मेरे साथ जनपथ मार्केट में जो हादसा हुआ उसमें वो चश्मा भी चला गया। कोई उचक्का, वर्दीवाले गुंड़ों के सामने से उसे ले भागा। मेरा वो प्यारा रे-बैन या तो उस मुस्टंडे की नाक पर सजा होगा या मुमकिन है उसने अगले ही पल अगले ही चौराहे पर उसे 500 या 1000 रुपए में बेच खाया हो। कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?


मेरे लिए वो सिर्फ एक चश्मा नहीं था। जब पहली बार 6290/- का ख़रीदकर मैंने उसे पहना था तो एक तरह से बरसों पुराना एक ख़्वाब मेरी आंखों के सामने तामीर हो चुका था। बरसों की ज़िद थी कि चश्मा पहनूंगा तो रे-बैन का। शोरूम पर जाता था, तरह-तरह के चश्में लगाकर आईने में देखता था और क़ीमत देखकर वापस लौट आता था। हमेशा ही रे-बैन का चश्मा मेरे लिए बहुत मंहगा होता था। और मेरे लिए ही क्यों मेरे जैसे मध्यमवर्गीय आदमी के लिए रे-बैन मंहगा ही तो है। कभी पैसे होते भी थे तो रे-बैन के चश्मे की ख़रीदारी फ़िज़ूलखर्ची लगती। उससे भी ज़्यादा कई अहम काम सामने मुंह बाए खड़े होते। कभी चश्मे के लिए जमा पैसे LIC की किस्त में मिलाने पड़ते, कभी बीमारी-हारी में खर्च हो जाते, कभी कहीं तो कभी कहीं....। रे-बैन का चश्मा खरीदना हर बार मंहगा शौक़ मानकर ख़ारिज कर देना पड़ता था।

छोटी-मोटी कई ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया कि, नहीं इसके बिना भी काम चल जाएगा.... इस बार बारी रे-बैन की। लेकिन हर बार मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
ना जाने कब-कब और कहां-कहां उसकी कमी महसूस होती थी।

फिर वो दिन भी आया जब मैंने अपना पहला रे-बैन ख़रीदा। आज से कोई एक साल पहले। या शायद एक साल भी नहीं हुआ होगा उसे। सबसे पहले उसे घर लाया तो उसके चारों ओर सफ़ेद कागज़ लगा कर उसकी फ़ोटो खींची (वो फ़ोटो यहां लगा रहा हूं)। मेरा रे-बैन मेरे लिए बड़े शान की बात थी। किसी मुक़ाम की तरह ही संघर्षों से पाया था मैंने उसे। रोज़ नियम से उसकी देखभाल करना, ऑफ़िस जाते वक़्त करीने से उसे साफ करके पहनना और ऑफ़िस पहुंचकर सावधानी से उसे साफ़ करके केस में वापस रखना, कहीं लाते-ले जाते समय बच्चों की तरह उसकी फ़िक्र करना, रह-रहकर सबकुछ कई बार याद आ जाता है दिन में।

अब पता नहीं एक बार फिर कब तक ले पाऊंगा रे-बैन। लेकिन लूंगा ज़रूर। ज़िद का पक्का हूं मैं। और जब तक नहीं ले पाऊंगा तब तक क्या करूंगा....? तब तक मेरी एक मित्र का गिफ़्ट किया हुआ ‘Police’ का ग्ल्येर पहनूंगा। मेरे लिए खास UK से लाईं थीं वो। थैंक्स अनु।

रे-बैन का दूसरा चश्मा ले भी लूंगा तो पहले वाले को कभी नहीं भूल पाऊंगा। उसकी याद करके अब भी मन भारी है और रहेगा भी।

कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?

Thursday, July 29, 2010

पुलिस और तमाशबीनों के बीच बिलकुल अकेला था मैं

अब लग रहा कि अरुण जी से पूछ लेता कि बिना पूछे मेरा ऑफ क्यूं चेंज किया सर? हर बार मेरा ऑफ Friday को होता है लेकिन इस बार ना जाने क्यूं ऑफ Wednesday कर दिया गया। मुझे भी कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ रहा था इसलिए मैंने अरूण जी से कुछ नहीं कहा। घर वाले कह रहे हैं कि इस बार भी ऑफ Friday ही होता तो शायद ये सब ना हुआ होता। शायद होनी टल जाती।

अब लग रहा है जैसे Wednesday ऑफ मिला ही इसलिए था कि मेरा एक छः फुटे दबंग ड्राइवर से झगड़ा हो जाए, मेरा माथा, नाक और ठोड़ी फूट जाए, ठोड़ी पर पांच टांके आएं, मेरा 6290/- का चश्मा खो जाए और 3000/- का भिल्लड़ अस्पताल में बन जाए। और कोई मदद करने वाला तक ना हो।

हुआ यूं कि मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ कनॉट प्लेस गया था। अक्सर ऑफ वाले दिन हम लोग मम्मी को लेने उनके ऑफिस रक्षा भवन चले जाते हैं। लांग ड्राइव भी हो जाती है और एक दिन मम्मी भी बसों में धक्के खाने से बच जाती हैं। मम्मी का ऑफिस छूटने में अभी वक़्त था तो हम लोग साउथ इंडियन खाने cp में सरवना भवन चल गए। खाया पिया और जनपथ चले आए। बेटी कार में ही सो चुकी थी। पत्नी को जूट का बैग लेना था, मैंने कहा बच्ची को सोने देते हैं तुम जाकर बैग ले आओ, मैं यहीं रोड साइड गाड़ी लगा कर इंतज़ार करता हूं। बीवी चली गई तो मैंने अपने बॉस मिलिंद जी को फ़ोन लगा कर एक कार्यक्रम के संबंध में उनसे चर्चा की। बात करते-करते मैंने देखा की आगे और जगह थी। बात ख़त्म करके मैंने गाड़ी gap में एक Tavera टेक्सी के पीछे लगा दी। गाड़ी लगाने की देर थी कि उसका ड्राइवर उतर कर गंदी-गंदी गालियां बकने लगा। जबकि मेरी गाड़ी उसकी गाड़ी से काफी फ़ासले पर थी लेकिन पता नहीं क्यूं वो ग़ुस्से में पागल सा हो रहा था। मुझे अभी तक उसके ग़ुस्से की वजह समझ नहीं आई। मैंने कहा गाली क्यूं बक रहा है भाई, आराम से बात कर ले। वो धूंसा दिखाकर और गालियां बकने लगा। मुझे अक्सर ग़ुस्सा नहीं आता लेकिन कोई किसी को बिना बात ऐसे गाली कैसे बक सकता है। मैंने उससे कहा कि रूक साले तुझे अभी देखता हूं।

ये कह कर में बेटी को गाड़ी में सोता छोड़कर पीछे खड़ी पीसीआर की ओर दौड़ा। पीसीआर में एक ही पुलिसवाला बैठा था। मैंने उसे अपने स्टार न्यूज़ का परिचय देते हुए बताया कि एक ड्राइवर बेवजह गाली-गलौज कर रहा है। वो बोला कि जी मैं तो गाड़ी में अकेला हूं कभी भी कोई वायरलैस आ सकता है। साहब राउडं पर गए हैं, आप रुको अभी आते होंगे। मैंने कहा मेरी बेटी गाड़ी में अकेले सो रही है, मैं रुक नहीं पाउंगा आप जल्दी से किसी को भेजो। कह कर मैं जैसे ही अपनी कार की तरफ आया तो देखा कि वो अपनी टेक्सी लेकर भाग रहा है। मैं चिल्लाया। लेकिन वो नहीं रूका। वो लगातार गालियां बक रहा था। मैंने भागकर उसका गिरेबान पकड़ लिया। वो मेरे हाथ पर धूंसे मारने लगा। मुझे ग़ुस्सा आ गया और मैं उसके एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया। बस! वो उतरकर मुझ पर पिल पड़ा। मैंने देखा पुलिस के कुछ लोग उधर ही आ रहे थे। मैंने तुरंत उनसे मदद मांगी लेकिन उसने पुलिस के सामने ही मेरे चेहरे पर तीन पंच मारे। मेरा ray ban का मंहगा चश्मा वहां गिर गया और उसे फ़ौरन ही कोई उचक्का लेकर भाग भी गया। देखिए, ये सब दिल्ली पुलिस के मुस्टंड़ों के सामने हो रहा था। उसके हाथ में लोहे का कड़ा था जिससे मुझे ज़्यादा चोट पहुंची। मेरी नाक और ठोड़ी से खून का फव्वारा छूटने लगा। मेरा सिर चकराने लगा। तमाशबीन इक्टठा होने लगे। मैंने जैसे-तैसे फ़ोन करके अपनी पत्नी को वापस बुलाया। और चुंकि मिलिंद सर का नंबर री-डायल लिस्ट में था, सो उन्हे फिर से फ़ोन लगाया लेकिन शायद मिलिंद वयस्त रहे होगें, उन्होने फ़ोन नहीं उठाया। मुझे बेहोशी छाने लगी थी। बेटी अभी भी कार में सो रही थी। पत्नी लौटी तो मेरी हालत देखकर बौखला उठी। मेरा चेहरा ख़ून से शराबोर था। उसने वहां खड़े पांच-छः पुलिसवालों से मदद मांगी। पुलिसवाले हंस रहे थे। बोले- बोलो मैडम क्या करना है... ड्राइवर तो ये रहा हमारे साथ.... चलो थाने ले चलते हैं इसको... आपको भी चलना पड़ेगा थाने....।

मैंने कहा- मैं थाने जाने की स्थिति में नहीं हूं, मैं पहले हॉस्पिटल जाऊंगा। पुलिसवाले बोले कि ठीक है...फिर आप हस्पताल जाइए.... इसे छोड़ देते हैं। मैं पुलिस और वहां के लोगों का रवैया देखकर हैरान था जो चाहते थे कि मैं पहले अपने बीवी-बच्चों और अपने बारे में सोचूं और ड्राइवर को माफ़ कर दूं क्योंकि वो ग़रीब है बेचारा। इससे ज़्यादा वहां कोई मेरी मदद को तैयार नहीं था। बल्कि लोगों ने मेरी बीवी को यहां तक समझाया कि मैडम आप इस चक्कर में पड़ी रहेंगी और दस मिनट में यहां आपकी गाड़ी का सारा सामान गायब हो जाएगा, भाईसाहब को समझाइए और निकलिए यहां से। पुलिस अब तक दूर जाकर खड़ी हो चुकी थी। मेरी बीवी ने पुलिस से फिर कहा कि आप उसे पकड़ते क्यूं नहीं.... मेरे हसबैंड स्टार न्यूज़ में हैं, एंकर हैं और देखिए उनके चेहरे से कितना खून बह रहा है। एक पुलिसवाले ने तंज़ कसा- टीवी पर तो ये हम लोगों को भी खूब दिखाते हैं। मुझे लग रहा था मैं बेहोश हो जाऊंगा। मैंने अपनी पत्नी को बुलाया और कहा कि यार, मुझे चक्कर आ रहे हैं अभी चलो। मैंने उसकी टैक्सी का नंबर नोट किया- UP 17C 8622, उसका नाम पूछा- नेगी। उसका नंबर लिया। और जैसे-तैसे मां के ऑफिस तक पहुंचा।

मम्मी के ऑफिस पहुंचकर मुझे नहीं पता फिर क्या हुआ। मैं बेहोश हो गया। मम्मी के ही एक भले मानस सहकर्मी ए.के.शर्मा मेरी कार ड्राइव करके लाए। मैं पूरे रास्ते गफ़लत में रहा। नौएडा आते ही मैक्स अस्पताल पहुंचा। अस्पताल पहुंचते ही मुझे उल्टियां हुईं। डॉक्टर ने दिलासा दिया कि कोई घबराने की बात नहीं है। ठोड़ी पर टाकें आएंगे। पांच टांके आए। सातवें दिन टांके कटेंगे।

अब जब होश में आया हूं तो लग रहा है नेगी को सबक सिखाऊं। कम से कम FIR तो करा ही दूं उसकी। लेकिन अभी-अभी सहारा के मेरे दोस्त प्रशांत, अब्बास, मुर्तज़ा और बृज भूषण आए थे, बोले- छोड़ो यार, जान बची तो लाखों पाए। कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। आगे से याद रखो, सड़क पर पंगा कभी नहीं लोगे। हाथ जोड़ो और निकल लो वहां से, ज़माना नहीं है भाई किसी से उलझने का।

कमाल है, क्या ज़माना इतना खराब हो चुका है कि आपसे कोई कभी भी कहीं भी पंगा लेले लेकिन आप किसी से पंगा मत लो। पुलिस भी मदद नहीं करती। सच कह रहे हैं शायद वो। जनपथ में पुलिस और सैंकड़ों तमाशबीनों के बीच मैं कितना अकेला था। वो धूंसे की जगह मुझे चाकू या गोली भी मार सकता था।

यहां मेरे साथ जो कुछ हुआ उसे सीधा-सपाट लिख रहा हूं। वो, जो उस वक़्त मैंने महसूस किया। जो अनुभव किया। उसे दर्द के चलते अभी बयान नहीं कर पा रहा हूं। हां, ray ban का अपना वो चश्मा बहुत मिस कर रहा हूं। बहुत समय इंतज़ार के बाद ले पाया था उसे।

Saturday, July 10, 2010

ग़ज़ल कहने की ख़ता माफ़ हो...।

अब अपना किसको कहोगे मियां मुस्कान तुम,
कि ज़माना देखके, पकड़े खड़े हो कान तुम।

लो भुगतो, कि आ गई मुफ़लिसी तुम पर,
तमाम उम्र तो बघारते रहे हो शान तुम।

तुम चबाते हो अपने होंठ परेशां होकर,
लोग समझते हैं खाते हो बहुत पान तुम।

एक मासूम सा बच्चा तुम्हारे भीतर है,
इस बच्चे की न ले लेना, कभी जान तुम।

मैं भला तो जग भला, अमां यार छोड़ो भी,
सूरत से दिखते हो, या वाकई हो नादान तुम।

रोटी, कपड़ा और मकान, बातों से नहीं मिलते हैं,
बड़े ठाठ से रहते हो बना के ख़्वाबिस्तान तुम।

ना रोते ना हंसते हो, ना हिलते ना डुलते हो,
सच को सुनकर गोया हो गए कब्रिस्तान तुम।।

Monday, June 21, 2010

मैं भी तो कविता कहता था।

सालों बाद कोई कविता लिखी थी... यही कोई दस साल बाद... मन के दर्द सहते विचार उद्धेलित होकर जमा हो गए थे, उन्ही के बिखराव को शायद कविता कहने की यह भूल भी हो सकती है...आज इसे लिखे जाने के तीन साल बाद पढ़ा तो कुछ लाइनें और उभर आईं...

कविता कह लीजिए या कुछ और..., जो भी है, प्रस्तुत है-



मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।।

जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

अब कर्ज़ कई, अब मर्ज़ कई,
संग उम्र के बढ़ते फ़र्ज़ कई,
जीवन धुन, तानें बिगड़ गईं,
एक मुखड़े की हैं तर्ज़ कई,
जब अपनी धुन में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।


जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!

Thursday, June 17, 2010

"यार, यहां पर बड़ी Politics हो रही है।"

मुझे नफ़रत हैं ऐसे लोगों से। लेकिन क्या करें, कुछ लोगों की दुकानदारी ही ऐसे चलती है। वो उस मछली के किरदार में होते हैं जो पूरे तालाब को सड़ा देती है। जिनका स्वार्थ ही दूसरों को छोटा साबित करके ख़ुद को बड़ा बनाना है। और आख़िर में अपनी आदत से मजबूर होकर वो अपने ज़मींदोज़ होने का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं।

आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी दफ़्तर में काम करते हों। ज़रा बताइए, कितने लोग हैं आपके दफ़्तर में जो अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं। अरे, लोग जिसकी नौकरी करते हैं, उसी को गाली देते फिरते हैं। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। लोग परस्पर किसी भी मुद्दे पर असहमत हों लेकिन अपने नौकरी और बॉस को लेकर कामोबेश सभी एक दूसरे से सहमत होते हैं। सभी का ‘संस्थागत मानसिक स्तर’ ख़तरे के निशान से ऊपर ही रहता है। सरकारी नौकर अपने अधिकारी से परेशान और प्राइवेट वाले अपने बॉस से। ये ना नौकरी के सगे होते हैं और ना अपने।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ऑफ़िस में लोगों को अपना बॉस हिटलर का बेवकूफ़ क्लोन क्यों नज़र आता है? कर्मचारियों का मानना होता है कि बॉस तो कर्मचारियों को मज़दूर समझता है। दफ़्तर के सर्वाधिक नाकारे लोग बॉस को गाली देते फिरते हैं। जिनके पास काम होता उन्हे बॉस और सहकर्मियों को गाली बकने का समय नहीं मिल पाता, लिहाज़ा वो घर आकर अपनी व्यस्तता का frustration अपने बीवी-बच्चों पर निकलाते हैं। बॉस कितना भी अच्छा क्यूं ना हो कभी प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाता।

पता नहीं क्यूं, हर तरह का कर्मचारी अपने को शोषित मानता है। जो कुछ काम नहीं करते वो कहते फिरते हैं कि मेरी प्रतिभा को यहां कुचला जा रहा है, मुझे मौक़ा ही नहीं दिया जाता, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा। कोई और धंधा पानी शुरू करूंगा। और जिनसे काम लिया जाता है, वो भी यही कहते घूमते हैं कि मेरा शोषण हो रहा है, वेरी वॉट लगा रखी हैं, गधों की तरह मुझसे काम लिया जाता है, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा।

ना जाने क्यूं कुछ लोग अपने जिस दफ़्तर को जहन्नुम बताते फिरते हैं, उसे ये जानते हुए भी नहीं छोड़ना चाहते कि उनके ना रहने से कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। वो जन्म भर की तरक्की की उम्मीद वहीं रहकर करते हैं, उनकी प्रतिभा भी पहचान ली जाए, सारे महत्वपूर्ण काम उन्ही से कराए जाएं, उनकी तनख्वाह भी उनके मन मुताबिक हर साल बढ़ा दी जाए, उनके अलावा किसी और को भाव ना दिया जाए और फिर वो ग्रैचुइटी के साथ पेंशन भी वहीं से पाएं। अरे भाई, आप इतने ही प्रतिभावान हैं तो कहीं और किस्मत क्यों नहीं आज़माते। अपनी नौकरी को गाली भी बकेंगे और रहेंगे भी वहीं। ये भी ख़ूब है।

कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि सबसे ज़्यादा काम तो वही करते हैं, फिर भी उनकी तनख़्वाह इतनी कम है और बाक़ी सारे तो बस गुलछर्रे उड़ाने की सैलरी पाते हैं। काम मैं करता हूं और पैसे दूसरों को मिलते हैं। .....छोड़ूंगा नहीं।

ऐसे ही कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर कर बैठते हैं। क़ाबलियत के दम पर किसी से आगे निकलने के बजाए, टांग अड़ाकर दूसरों को गिराने की कोशिश करते हैं। ना ही वो बड़े बन पाते हैं और हमेशा इस ग़लतफ़हमी में भी रहते हैं कि उन्होंने दूसरों को बड़ा नहीं बनने दिया।

राजनीति.......! यार, यहां पर बड़ी politics हो रही है। उनकी ज़ुबां पर बस यही डॉयलाग होता है। और politics सच में शुरू हो जाती है।

यहां राजू श्रीवास्तव का एक चुटकुला सार्थक रहेगा। राजू भाई कहते हैं कि जैसे पुरातन काल के अवशेष आज ज़मीन से निकलते हैं और फिर उनका अध्ययन होता है, वैसे ही आज की चीज़े कई सौ साल बाद निकलेंगी। कई सौ साल बाद जब ज़मीन से CD और DVD निकलेंगी तो अनुमान लगाया जाएगा कि ये निश्चित ही मनुष्य के खाना परोसने की थाली रही होगी। फिर कोई कहेगा कि अगर ये थाली रही होगी तो इसमें छेद कैसे हो गया है? .............फिर शोध का नतीजा निकलेगा कि मनुष्य जिस थाली में खाता था उसी में छेद करता था।

Monday, June 14, 2010

इमोश्नल अत्याचार....!


अभी-अभी एक हवाईजहाज़ सिर के ऊपर से उड़ कर निकला है। साल भर पहले जब पहली बार सचमुच हवाईजहाज़ में बैठा तो एहसास हुआ कि बचपन में इस हवाईजहाज़ ने भी कितना इमोश्नल अत्याचार किया है हम पर। मन में, पापा से मिलने की कितनी बड़ी उम्मीद जगाई थी इसने, जो आगे चलकर जीवन की उलझनों को सुलझाने में पता नहीं कब और कहां गुम हो गई।

बचपन में स्कूल जाते हुए नन्ही बहन पूछा करती थी कि ‘भईया, पापा हमारे पास नहीं आ सकते तो क्या हम भी पापा के पास नहीं जा सकते?’

- ‘पापा, भगवान जी के पास चले गए हैं पागल।’
- ‘तो क्या भगवान जी के पास अपन नहीं जा सकते, बोलेंगे हम पापा से मिलने आए हैं, हमारे पापा यहां आ गए हैं। प्लीज़ मिलवा दीजिए हमारे पापा से।’ वो मासूमियत से पूछती।
- ‘जा सकते हैं शायद, प्लेन में बैठकर जा सकते हैं, लेकिन उसके लिए बहुत सारे पैसे लगते हैं। एक दिन जाएंगे, ज़रूर।’
- ‘नहीं.... अभी चल ना मुझे मिलना है पापा से।’

और नन्ही बहना आसमान में उड़ते एरोप्लेन को देखकर रोने लगती। स्कूल पास आते ही मैं उसे टीचर का डर दिला कर चुप करा देता। वो आंसू पोछकर चुप तो हो जाती थी लेकिन उसकी उसकी सुबकियां क्लॉस में दाखिल होने तक जारी रहतीं। ऐसा लगभग रोज़ ही होता था। क्योंकि स्कूल के पास ही खेरिया हवाईअड्डा था और थोड़े-थोड़े अंतराल पर वहां से हवाईजहाज़ होकर गुज़रते थे। किसी-किसी रोज़ तो बहन पापा को याद करके रोते-रोते ‘मम्मी के पास जाना है’ की ज़िद पकड़ बैठती थी। फिर उसे उस रिक्शे में ही वापस भेजना पड़ता था।

मैं तब चौथी क्लास में था और बहन पहली क्लास में। हम दोनों भाई-बहन एक साथ साईकिल रिक्शा में स्कूल जाते थे। स्कूल, आगरा का केन्द्रीय विद्यालय न. 1। घर से कोई आठ किलोमीटर दूर।

पिता के देहांत के बाद हम नागपुर से आगरा चले आए थे। हालत ही कुछ ऐसे बने कि नाना-नानी मां को उसके ससुराल वालों के साथ नहीं छोड़ सकते थे। उन्होने कभी ख़ुद भी इच्छा जाहिर नहीं की मां को अपने साथ ले जाने की। वजह थी पापा की नौकरी। पापा के बाद किसे मिले उनकी नौकरी। दादी चाहती थीं कि नौकरी मेरे बेरोज़गार चाचा को मिले। नाना-नानी चाहते थे कि नौकरी मेरी मां को मिले, जिससे हम भाई-बहन की परवरिश ठीक से हो जाए। हालांकि मां ने पापा के जीते-जी कभी घर से बाहर निकल कर नौकरी के बारे में सोचा तक नहीं था। हालात सब कुछ करवा देते हैं, नौकरी मां को मिली। और मां के ससुराल वाले इस बात से नाराज़ होकर इस हाल में उसे और अकेला कर गए। पिता की मृत्यू के बाद मां की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी। 28 साल की थी मेरी मां जब पापा इस दुनिया से गए। मेरी बहन को तो पापा का चेहरा तक याद नहीं। उनके साथ बिताया एक पल भी याद नहीं। मेरी यादों में फिर भी पापा के लाड़-प्यार के कुछ धुंधलके ज़रूर आज भी उमड़ते घुमड़ते हैं।

हार्ट अटैक आया था पापा को। रात को सोते समय पलंग से गिर पड़े थे। मां की गोद में आख़िरी सांस ली। मां ने पापा के चेहरे पर पानी के छींटे मारे, हाथेलियों और तलवों को रगड़ा, लेकिन पापा फिर नहीं जागे। मुझे नहीं पता था पापा अब नहीं लौटेंगे। बहन को तो इतना भी नहीं पता था। हम दोंनो बस मां को देखकर रोए जा रहे थे। मुझे लगा पापा बीमारी में बेहोश हो गए हैं, हॉस्पिटल से ठीक होकर आ जाएंगे। लेकिन वो ना ठीक हुए ना वापस आए।

उनके दाह संस्कार का वो पल मेरे बालमन के लिए सबसे ज्यादा पीड़ादायक था। पापा मेरे सामने थे। मौन। चिरनिद्रा में। वो जाग जाते तो सब ठीक हो जाता। लेकिन....। मैंने रोते हुए पता नहीं किससे कहा था कि पापा के उपर इतनी भारी लकड़ियां मत रखिए प्लीज़! पापा को बहुत चोट लग रही होगी, दर्द हो रहा होगा। मुझे वहां से कुछ देर के लिए हटा दिया गया। फिर कुछ देर बाद पापा को मुखाग्नि देते हुए समझ नहीं पा रहा था कि पापा हमें छोड़कर क्यूं चले गए। जबकि टॉयलेट और ऑफ़िस जाने के सिवा पापा कभी हमें अकेले नहीं छोड़ते थे।

आजतक नहीं समझ पाया हूं कि पापा क्यूं चले गए। आज भी पग-पग पर पापा की ज़रूरत महसूस होती है। उनकी कमी खलती है। उम्र और समझ के साथ मेरी और बहन की वो उम्मीद भी कब की टूट चुकी है कि पापा से मिलने हवाईजहाज़ से जाना मुमकिन है।

साल भर पहले जब पहली बार हवाईजहाज़ में बैठा तो सोचा कि इस हवाईजहाज़ ने भी कितना इमोश्नल अत्याचार किया है हम भाई-बहन पर। और मुस्कुरा दिया। मैं ज़मीन से कई हज़ार फीट की ऊंचाई पर था, लेकिन पापा से फिर भी बहुत दूर.....। आज भी जब कोई हवाईजहाज़ उड़ता देखता हूं तो बचपन की उन यादों का मेला लग जाता है कुछ देर के लिए।

Saturday, June 12, 2010

मानो या ना मानो... रावण भी एक ब्लॉगर था।


Facebook पर रवीश कुमार जी का स्टेटस था- रावण के चरित्र में महानता के कोई लक्षण थे? क्यों लोग रावण से भी सहानुभूति रख लेते हैं? क्या किसी खलनायक के महान होने के लिए ज़रूरी है वो मारा भी जाए तो लोग आंसू बहाये।

इस पर मेरा कमेंट था-... रावण शायद इसलिए महान नहीं हो सका रवीश जी क्योंकि उसकी खलनायकी के अलावा कोई पक्ष उकेरा ही नहीं गया। हमने जन्म लेने के बाद अगर हनुमान जी के हाथ में बांसुरी देखी होती तो हम उन्हे उसी रूप में पूज रहे होते... केवल चोरी ही चोर के व्यक्तित्व का शेड नही होता... और फिर कालांतर में वही चोर रामायण लिखकर महान भी बन जाता है।

हमारी धार्मिक आस्थाएं बड़ी बेलगाम है साहब। अब क्या करें, राम और रावण को हमने जैसा पढ़ा उन्हे वैसा ही समझने लगे, मानने लगे और रावण का पुलता फूंक कर राम की पूजा करने लगे। मामला धर्म का था इसलिए पाप लेने के डर से किसी ने कोई विशलेषण भी नहीं किया। आज चोर, डकैत, अपहरणकर्ता और यहां तक कि आतंकवादी तक, पकड़े जाते हैं, सज़ा काटते हैं, उन्हे अपनी ग़लती का अहसास होता है और उनमें से कई काटने के बाद समाज की मुख्यधारा का हिस्सा तक बन जाते हैं। लेकिन poor man रावण, राम के हाथों मरने के बाद भी हर साल सोनिया गाधी से लेकर पप्पु, बंटी और बबलू के हाथों जलाकर मारा जाता है। कहते हैं बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है। सच बताना, जीत गई क्या अच्छाई?

सवाल रावण से सहानुभूति रखने का भी नहीं है। सवाल हमारी आस्था और अनास्था का है। इसी देश में जहां रावण को जलाया जाता है वहीं देश के कई हिस्सों में उसके ज्ञान स्वरूपों की पूजा भी होती है। ज़रा सोचिए तो सही कि अगर भगवान लोगों ने किंवदंतियों के आधार पर जो तब किया अगर वो आज करते तो क़ानून में उनके किए के लिए सज़ा का क्या प्रावधान होता? क्या भगवान शिव का अपने पुत्र की गर्दन धड़ से अलग करना और फिर एक बेगुनाह हाथी का सिर काट लेना अपराध की परधि में नहीं आता? क्या इंद्र का अपसराओं के साथ रास-लीला करना उस वक़्त की Rave Party नहीं होता होगा? क्या राम का बाली को छल से मारना और अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ अन्याय करना न्यायसंगत ठहराया जा सकत है? उदाहरण और भी हो सकते हैं। अपराधी तो ये भी हुए, या फिर इसलिए नहीं हुए क्योंकि इन्होने देवकुल में जन्म लिया था, दैत्यकुल में नहीं। रावण तो दैत्यकुल से था, उससे खलनायकी के सिवाए उम्मीद भी क्या की जा सकती थी, लेकिन शिव, इंद्र और राम को खलनायकी की आवश्यकता क्यों कर पड़ गई? इस पर एक सार्थक बहस हो सकती है, लेकिन फिर कभी...।

चलिए, मैं कहता हूं कि रावण भी एक ब्लॉगर था, ब्लॉग लिखता था। आप मानेंगे क्या? नहीं मानेंगे ना। लेकिन अगर रामायण में ऐसा लिखा होता तो मान लेते। मान लेते ना। अरे बाप रे! ये मैंने क्या कह दिया, ऐसा होता तो हर विजयदशमी पर रावण के पुतलों के साथ हम ब्लॉगरों के पुतले भी फूंके जाते।

ये समाज भी बड़ा दिशाहीन है साहब। अपने विवेक से काम लेने और अपने पर विश्वास कायम करने की हिम्मत ही नहीं है लोगों में। किसी और के इशारों पर नाचना सहर्ष मंज़ूर है। यहां बाबा रामदेव के भी अनुयायी हैं, श्रीश्री रविशंकर के भी, संत आसाराम के भी और स्वामी नित्यानंद और भीमानंद के भी।

तो सवाल सहानुभूति का नहीं, आस्था का है, विश्वास का है। नटवरलाल हमारे देश के लिए अपराधी था और रहेगा। जबकि अमेरिका ने कहा था कि नटवरलाल जैसे दिमाग देश की तरक्क़ी में लगाए जाने चाहिए। अब आप रावण की तरह नटवरलाल के पुतले फूंकिए या उसे सौ साल की सज़ा दीजिए। अमेरिका में होता तो क्या शान होती अगले की।

मैं कोई रावण का भक्त नहीं हूं लेकिन मैं राम से भी सहमत नहीं हूं।

Thursday, June 10, 2010

दूसरों की पोस्ट पर गाली कौन बकता है..?

मेरे एक मित्र आजकल परेशान हैं। सामाजिक सरोकारों के चलते नाम का ख़ुलासा नहीं कर सकूंगा। अपने ब्लॉग पर अक्सर क्रांतिकारी विचार परोसते हैं। व्यवस्था पर चोट करता लेखन होता है उनका। लेकिन आजकल बड़े आहत हैं। आहत हैं, ऊल-जलूल टिप्पणियों से। उनकी पोस्ट पढ़कर उनकी सराहना करने वालों की भी कमी नहीं है। लेकिन गाली बकने वालों का क्या करें? मेरी तरह टीवी में काम करते हैं। सो ज़्यादातर टिप्पणियां तो उनके पेशे को अपमानित करने वाली होती हैं। कि अरे साहब ये टीवी नहीं ब्लॉग है, यहां कुछ गंभीर परोसिए। अरे आप ब्लॉग लिखने में समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं, जाकर कोई नाग-नागिन या भूतप्रेत की ख़बरें लिखो। बड़े भगत सिंह बनते हैं, फांसी पे चढ़िएगा का? कभी-कभी तो लोग गंदी-गंदी गालियां तक लिखकर भेज देते हैं। मित्र उन्हे डिलीट करते फिरते हैं।

फिर मैंने उन्हे अपने अनुभव के आधार पर बताया कि सबसे पहले तो अपने ब्लॉग पर comment moderation लगा लो, जिससे गालियां ससम्मान वापस लौटा सको। दूसरा इन गाली बकने वालों पर तनिक भी ध्यान मत दो, क्योंकि ये अभागे और अनाथ होते हैं। पक्के लावारिस। बिना नाम के गाली बकते हैं। noreply-comment@blogger.com की ID से। blogger.bounces.google.com के पते से और Anonymous के छद्म नाम से। ये वो हैं जो ख़ुद तो सार्थक लिख नहीं सकते, लेकिन सार्थक लिख रहे ब्लॉगरों को गाली बक कर स्वयं में गौरवान्वित होना चाहते हैं। ये बड़े ख़ुश होते हैं कि देखा, बैंड बजा दी ना। ये सही मायने में आलोचक होने की गलतफ़हमी के गर्भ में सड़ते रहते हैं। साहित्य की जननी इनके हाथ में कलम देखकर ख़ुद को लज्जित महसूस करती होगी।

मैं ऐसे टिप्पणीकारों को साहित्यिक सौहार्द को भंग करने वाले आतंकवादी कहता हूं। ये दूसरों की पोस्ट पर अपनी गाली देख कर बिलकुल वैसे की ख़ुश होते हैं, जैसे कोई आतंकवादी अपने किए विध्वंस की तस्वीर दूसरे दिन के अख़बार में देख कर ख़ुश होता है। शर्म आनी चाहिए ऐसे टिप्पणीकारों को जो दूसरों को प्रोत्साहित करने की बजाए इरादतन हतोत्साहित करते हैं।

उम्मीद से हूं कि मेरे मित्र भी जल्दी ही मेरी तरह ऐसी टिप्पणियों पर ध्यान ना देने की आदत डाल लेंगे। क्या करें साहब साहित्य के गांव में अब भू-माफ़ियाओं की घुसपैठ बढ़ने लगी है।

Wednesday, June 9, 2010

आप ज़िदा हैं या मर गए...? हो जाए एक छोटा सा टेस्ट...


बहुत मुश्किल काम नहीं है ये जानना कि हम ज़िदा हैं या मर चुके हैं। नहीं...नहीं...ये पुनर्जन्म पर किसी अति महत्वाकांशी टीवी चैनल का टोने-टोटके वाला शो नहीं है, बल्कि ख़ुद अपने आप से आपका साक्षात्कार है। तो हो जाए एक छोटा सा टेस्ट-
1- क्या कभी बिलकुल अकेले में बैठकर ख़ूब रोने का मन करता है आपका? ऐसा लगता है क्या कि चलो दुनिया को तो एहसास दिला दिया कि हम हिम्मत नहीं हारे हैं, हमारी ताकत, हमारा हौंसला किसी भी विपरीत परिस्थिति में हमारे साथ है, लेकिन अब कुछ देर के लिए किसी नितांत ख़ाली साउंड प्रूफ़ कमरे में जाकर ज़ोर-ज़ोर से रो लें। इतनी ज़ोर से कि कमरे की दीवारें थर्रा जाएं, लेकिन आवाज़ बाहर ना जाए?

2- आप कहीं से अपने घर तक रिक्शा में आएं हैं। लगते हैं तीस रुपए लेकिन आपने रिक्शेवाले से कहा कि बीस में चलना है तो बोलो, और वो किसी मजबूरी के चलते तैयार भी हो गया। सूरज 46 डिग्री पर जला रहा है और रिक्शावाला पसीने से तरबतर आपको आपके घर छोड़ता है। क्या आपने उससे कभी पूछा है- ‘भाई, रुको थोड़ा पानी पीकर जाना।’

3- क्या कभी अपने घर काम करने वाली नौकरानी की बच्ची को, अपने बच्चे का वो वाला खिलौना उठाकर दिया है जो उसे भी बहुत पसंद है और आपके बच्चे को भी?

4- मैंने ये तस्वीनौएडा में सेक्टर 26 के एक मैरिज होम के पास खिंची है। इसे ऐसे जूठी प्लेट चाटते देखकर मैं ख़ुद को रोक नहीं सका। अपनी कार वापस लौटाकर लाया इसकी फ़ोटो खिंची और इसे दस रुपए देकर पास खड़े कुलचे-छोले के ठेले से खाना खिलाया। आस-पास के लोग मुझे ऐसा करते देखकर हंस रहे थे। क्या आपने कभी हंसने वालों की परवाह किए बगैर किसी भूखे को खाना खिलाया है? मंदिर में जाकर ग़रीबों को तो सब खिलाते हैं, लेकिन बिना किसी प्रयोजन के अपनी व्यस्तता से समय निकालकर किसी को दिया है?

5- सड़क पर किसी के एक्सीडेंट के बाद उसे तड़पता देखकर, पुलिस केस कि परवाह किए बिना, क्या आप मदद के इरादे से कभी रुकें हैं?

6- सब्ज़ीवाले या फिर किसी दुकानदार को खरीददारी के बाद आपको लौटाने थे साठ रुपए, लेकिन ग़लती से उसने आपको लौटा दिए सत्तर रुपए। क्या आपने कभी अपने पास ज़्यादा आ गए दस रुपए उसे वापस किए हैं?

7- जब आप मॉल घूमने जाते हैं और आपको किसी का गोलूमोलू बच्चा बड़ा प्यारा लगता है तो आप प्यार से उसके गाल पर चुटकी ले लेते हैं। ट्रैफिक सिग्नल पर जब आपसे कोई महिला अपने बच्चे को गोद में लेकर भीख़ मांगती है तो क्या उसकी गोद में चिपके बच्चे के प्यारा लगने पर आप उसके गाल पर थपकी दे पाते हैं? या किसी भी गंरीब के बच्चे के साथ क्या आप ऐसा कर पाते हैं? (माफ़ कीजिएगा, नेता लोगों का अक्सर ग़रीब के बच्चे को गोद में उठाकर दुलारना यहां मान्य नहीं होगा)

8- किसी होटल या रेस्त्रां में खाना खाने के बाद आप बैरे को पांच-दस रुपए टिप में ज़रूर देते हैं। लेकिन क्या उस रेस्त्रां में रखे किसी NGO के ड्रॉप बॉक्स पर आपका ध्यान गया है, जो विगलांग बच्चों, कैंसर पीड़ितों अथावा मानसिक रोगियों कि मदद के लिए रखे गए हैं? क्या आपने उसमें कभी पांच या दस रुपए डाले हैं?

9- हॉस्पिटल में इलाज के बाद या घर में बीमारी के बाद बची हुई दवा क्या हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर रखे ड्रॉप बॉक्स में आपने कभी डाली है, जिस पर लिखा होता है- ‘ग़रीबों और असक्षमों की मदद करें, बची हुई दवा इस बॉक्स में डालें’?

10- दफ़्तर से हारे-थके लौटने के बाद भी क्या कभी बिना कहे अपने बूढ़े माता-पिता के पैर दबाए हैं? और दफ़्तर से कमरतोड़ थकावट लेकर लौटने के बाद मन ना होते हुए भी अपने साथ खेलने की अपने बच्चे की ज़िद पूरी की है?
इनमें से किन्हीं पांच सवालों का जवाब भी अगर ‘हां’ में है, तो, यक़ीन जानिए आप अभी ज़िंदा हैं..... मरे नहीं हैं।
नोट- बड़े ही अफ़सोस के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि ख़ुद को इन सवालों के जवाब देने के बाद मैंने पाया कि मैट्रोपॉलेटियन शहर के समाज की संदिग्ध परिस्थितियों के चलते, मैं 'मर' चुका हूं।

Tuesday, June 8, 2010

थैंक यू दयाराम...!

पत्थरदिल शहर में किसी की आत्मियता पाना, मनचाहा दूसरा जीवन पाने से कम नहीं है। दयाराम जैसे लोग कहां मिलते हैं आसानी से। संवेदनाएं, भावनाएं, आत्मियता, स्नेह, आत्मसम्मान और उम्मीद, हम टीवी वाले सिर्फ़ ख़बरों में ही ढ़ूंढ पाते हैं। आपस में इन मूल्यों के साथ प्रयोग करने का हमारे पास समय ही नहीं होता। कुछ संगदिल किस्म के हो चले हैं हम लोग। ये हमारे पेशे की मजबूरी भी है।

मंगलवार 8 मई की सुबह मौसम बड़ा सुहाना था। तय हुआ की 11 बजे का बुलेटिन मौसम पर ही करेंगे और स्टूडियो की बजाए बाहर से करेंगे। ऐसे में हम ऑफ़िस के पार्किंग एरिया का इस्तेमाल करते हैं। 11:23 पर बुलेटिन ख़त्म हुआ और मैं स्टूडियों में आने लगा। तभी पीछे तैनात सिक्योरटी गार्ड ने मेरा रास्ता रोक लिया।

-‘सर... ये....!’, कहते हुए एक काग़ज का टुकड़ा उसने मेरी तरफ़ बढ़ा दिया।
-‘क्या है ये...?’, मैंने पूछा।
-‘भेंट है सर आपके लिए..., वो अभी आप समाचार पढ़ रहे थे ना तभी के तभी लिखा है... कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ कीजिएगा।’

11:30 की हैडलाइन्स पढ़ने की जल्दी में मैं कागज़ लेकर पीसीआर आ गया। वो कागज़ के टुकड़े पर लिखा एक पद्द था। उस कागज़ पर लिखा हर शब्द हूबहू यहां लिख रहा हूं-

सोहत ओढ़े श्याम पट, गौर अनोखे गात।।
जिन पायो ‘मुस्कान’ को, धन्य वाहि पितु मात
काले केश बढ़ावहिं शोभा। टाई नील सवहिं मन लोभा।।
रहिहिं अधर सदा मुस्काना। अंग-2 बहु शोभित नाना।।
देश विदेश बखानै खबरा। कातिल नाम सुनत जा घबरा।।
भृकृटि-नैन न जाए बखाना। संक्षेपहिं में समझो कान्हा।।
पुष्ट गात बदन अति सुन्दर। नैन नक्श बहु छटा मनोहर।।
“राऊर नहिं कछु कामना, चाहे जब निकले प्रान।
बस बुझती आखों को दिखें, अनूराग “मुस्कान”।।
From- Gd- Daya Ram



पढ़कर मैं भावुक हो उठा। गार्ड दयाराम ऑफ़िस में कई महीनों से तैनात है, लेकिन मुझे याद नहीं इससे पहले मैंने उसका चेहरा कभी देखा हो। सिक्योरिटी से हमारा वास्ता कम ही पड़ता है। ऑफ़िस में कई गार्ड तैनात हैं, दयाराम भी उनमें से एक है। कौन लगता है दयाराम मेरा? कोई नहीं। लेकिन आज एक आत्मियता का रिश्ता कायम कर लिया उसने मुझसे। ऑटोग्राफ़ मैंने ख़ूब दिए हैं और लोगों ने मेरे साथ फ़ोटो भी ख़ूब खिंचाए हैं। लेकिन दयाराम जैसा प्रशंसक मुझे पहली बार मिला।


सवाल ये नहीं है कि मैं दयाराम की प्रशंसा से गदगद हो गया, बल्कि सच तो ये है कि दयाराम किसी के लिए भी उदाहरण हो सकता है, सबक हो सकता है। प्रशंसा करने की दयाराम की ईमानदारी ने मुझे प्रभावित किया, वरना आज के दौर एक-दूसरे से ईर्ष्या करने, द्वेष रखने और आलोचना करने की व्यस्तता में लोग किसी की प्रशंसा करना ही भूल चुके हैं। प्रशंसा में निंदारस घोलकर उसे कसैला कर चुके हैं। जबकि किसी की भी ज़रा सी प्रशंसा कितना हौंसला, कितना संबल और उत्साह देती है, इसके अहसास से मैं आज भरा हुआ हूं।

वैसे मैंने महसूस किया है कि ज़्यादा पढ़-लिख कर इंसान इतने बड़े क़द का हो जाता है कि फिर उसे बस प्रशंसा पाने की लत लग जाती है, फिर चाहे कोई उसकी झूठी प्रशंसा ही क्यों ना करे, किसी की प्रशंसा करना उसे अपनी शान के खिलाफ़ लगने लगता है। ऐसे में प्रशंसा करने का साहस अब केवल दयाराम जैसे लोग ही कर पाते हैं। जो भले ही कम पढ़े-लिखे हैं, लेकिन अपनी जड़ों से तो जुड़े हैं।

एक दयाराम को अपने भीतर जीवित रख पाने में अभी तक तो मैं सफल रहा हूं। ......और आप....?

Monday, June 7, 2010

15,274 लोगों की मौत, 2 साल की सज़ा?

भोपाल गैस त्रासदी,
15,274 लोगों की मौत,
पीड़ित परिवारों ने लड़ी 25 साल तक लड़ाई,
25 साल बाद फैसला आता है, याद रहे फैसला अभी ज़िला अदालत का है। इस मामले के आठों आरोपियों को धारा 304(A) के तहत दोषी ठहराया गया है, जिसमें अधिकतम 2 साल की सज़ा अथवा पांच हज़ार रुपए जुर्माना या फिर दोनों हो सकते हैं। लेकिन क्या ये न्याय है?

विडंबना है, कि इस देश में रावण के तो दस सिर हैं लेकिन एक सिर वाली न्याय की देवी की आंखों पर भी पट्टी हैं।

Thursday, June 3, 2010

ब्लॉगरों की भी डी-कंपनी... ये हो क्या रिया है?


अरे-अरे भाई लोग ये क्या कर रिए हो...? ब्लॉगिंग में भी गुंडागर्दी कर रिए हैं कुछ खुराफ़ाती। क्यूं भाई... कौन हो आप लोग... नहीं, मेरा मतलब है, क्या चाहते क्या हो आप लोग..? सीनियर ब्लॉगर, जूनियर ब्लॉगर, ये सब क्या सुन रिया हूं भाई? ये क्या तरीक़ा है? भाई लोगों ने अपनी एसोसिएशन भी बना ली है। मियां, कोई हड़ताल-वड़ताल करने का स्टंट भी करोगे क्या? अमां राजनीति करनी है तो Politics में जाओ... ब्लॉगिंग क्यों करते हो यारों।

भाईलोगों की डी-कंपनी सी चल रई दिक्खे। कलम को एके-47 बना लिए हो कै? अरे बावड़ों, जैसे दंबूक सै कागज पै लिक्खा ना जा सकै है ना, वैसे ही कलम से गोड़ी कोनी निकलै है। नी भरोसा तो फ़ायर कर के देख लो फिर। कमल तो हमेशा लिखने के काम ही आवे है। अरे..., लेखक हो...आतंकवादी हो कै? अरे भाया... राजनीति पै लेखन हुआ करे है, लेखन पै राजनीति कोणी।

वैसे jokes apart कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ आतंकवादी आजकल ब्लॉगिंग करने लगे हों? जूनियर ब्लॉगरों ने सीनियर ब्लॉगरों के छक्के छुड़ाए, सीनियर ब्लॉगरों ने जूनियरों की पैंट गीली की..., ये सब क्या है यार? अच्छा लिखो... जम के लिखो... सबको कुछ अच्छा पढ़ने को मिले। यहां गंद मत फैलाओ कलम के सिपाहियों। सिपाही हो सिपाही ही रहो, दाऊद क्यों बनते हो।

यार, तुम लोग भी ना कमाल करते हो। एक दूसरे को ही गाली बक रहे हो। क्यों भाई? अरे, कोई रास्ते में टांग अड़ाने तो आ नहीं रहा तुम्हारे। किसी की बात पसंद नहीं आ रही तो मत पढ़ो, मत करो उसपर टिप्पणी। और करना ही है तो मर्यादा के दायरे में रहकर करो। गाली बक कर क्या साबित करना चाहते हो? प्यार-मौहब्बत, शांति-सौहार्द, सद्भावना-भाईचारे पर ब्लॉग लिखते हो और दूसरों की किसी बात पर खुन्नस खाकर उसे गाली बकते हो। अरे जिसकी बात पसंद नहीं आई उसे भी प्यार से समझा दो यार। तुम सार्थक लिखो इसलिए ही तो तुम्हारे हाथ में कलम है, वरना बंदूक ना होती।

बंद करो ये डी-कंपनी यार।

Wednesday, June 2, 2010

क्या सीता को रावण से प्रेम हो सकता है?


क्या सीता को रावण से प्रेम हो सकता है? क्या रावण के साथ सीता की प्रेमलीला का कल्पना की जा सकती है। क्या कोई सोच भी सकता है कि सीता, रावण के प्रेमपाश में जकड़ सकती हैं या फिर रावण को अपने प्रेमपाश में बांध सकती हैं? फ़िल्म ‘रावण’ अभी रिलीज़ नहीं हुई है लेकिन कोई बता रहा था कि इस फ़िल्म में सीता की भूमिका से प्रेरित ऐश्वर्या राय बच्चन रावण की भूमिका निभा रहे अभिषेक बच्चन के साथ प्रेमालाप में लिप्त नज़र आएंगी। देखो भईया, अव्वल तो फ़िल्म देखे बिना इस टॉपिक पर किसी भी तरह की अटकल लगाना गुनाह-ए-अज़ीम माना जाएगा, लेकिन अगर फ़िल्म में ऐसा दिखाया भी गया है तो क्या...?

फ़िल्म ‘रावण’ में खैर रावण और सीता के बीच प्रेम संबंध दिखाने की ग़लती तो नहीं ही की गई होगी। संभव है, फ़िल्म में अभिषेक बच्चन रावण जितने बुरे बने हों और रावण की अच्छाई में छिपी उसकी बुराइयों को ख़त्म करने के लिए फ़िल्म की नायिका एक चांस लेती हो। क्योंकि कुछ बुराइयों के बिना तो रावण भी पूज्य ही था। फ़िल्म में रावण की तरह अभिषेक ने ऐश का अपहरण किया होगा और भाईलोगों ने उसे सीता अपहरण से जोड़कर हाय-तौबा मचा दी होगी। भई, फ़िल्म का नाम रावण है, अभिषेक रावण बने हैं और वो ऐश का अपहरण कर लेते हैं तो हो गईं ऐश्वर्या सीता। ये ज़रूरी नहीं है।

फ़िल्म ‘रावण’ का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार है। मणिरत्नम ने अगर कोई संवेदनशील सब्जेक्ट लिया भी होगा तो वो उसके साथ पूरा न्याय करने की कोशिश भी करेंगे। लेकिन सीता और रावण के बीच प्रेम की बात सुनना दिलचस्प रहा। राम को भी सीता पर समाज के इसी शक़ ने दुविधा में डाल दिया था। वरना सीता की अग्निपरीक्षा का औचित्य क्या था? मुझे राजकुमार संतोषी की फ़िल्म ‘लज्जा’ याद आ रही है। उस फ़िल्म में कुछ सवाल उठाए गए थे। क्या फ़िल्म ‘रावण’ में उनके जवाब मिल पाएंगे? ‘लज्जा’ में बड़ा बुनियादी सवाल उठाया गया था कि सीता, अपहरण के बाद रावण की अशोक वाटिका में रहीं अर्थात राम से अलग परपुरुष की छाया में रहीं इसलिए उन्हे अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी और अग्निपरीक्षा देने के बाद भी एक धोबी के कहने पर भगवान श्री राम ने उन्हे त्याग दिया। तो सवाल ये था कि राम भी तो सीता से उतने ही समय के लिए दूर रहे जितना कि सीता उनसे, तो राम की पवित्रता भी तो संदेह के दायरे में होनी चाहिए थी.... फिर राम की अग्निपरीक्षा क्यों ज़रूरी नहीं हो जाती? अरे भाई, सीता को किसी स्कीम में big bazaar से तो लाए नहीं थे। जिस पुरुषार्थ के दम पर लाए थे वो उसके बाद प्रमाणित क्यों नहीं हो सका? एक व्यक्ति की बतकही पर उनके अंदर का राजा जयजयकार कराने को आतुर हो उठा। और राजाजी ने राजधर्म के आगे पतिधर्म बिसरा दिया। क्यों भाई... इससे पहले भी राजपाठ उस प्रजा की अनर्गल बातों के आधार पर चलाया था क्या?

ज़रा सोचिए, आज के समाज में एक सुखी जीवन जी रहे पति-पत्नी में से पति अगर राम हो उठे तो कितनी सीताएं त्याग दी जाएंगी?

ऐसे में राम से भला तो रावण रहा... जैन्टलमैन था वो तो। उसने अपहरण के अलावा सीता के साथ कभी कोई अभद्रता तो नहीं की। और इस अभद्रता का परिणाम भी उसने मृत्यु पाकर भुगता, लेकिन राम को क्या सज़ा मिली अपनी आराध्या पर अविश्वास करने की? भरे समाज में उसे अपमानित करने की? पत्नी से दूर महल में रहकर जमीन के बिछौने पर सोने और कंदमूल फल खाने को क्या राम की सज़ा माना जा सकता है? दूसरे के लिए बिना अपराध भी आप ही सज़ा तय करेंगे और अपने लिए भी आप ही तय करेंगे। ये कैसा न्याय है भईया...? अच्छा.... राजा हैं न आप। और वैसे भी राजा के सामने तो सब प्रजा ही हैं। सीता राम की पत्नि और प्रजा दोनों थीं। तो अगर राम, राजा होने के नाते पत्नि के पक्ष में ना सोच कर प्रजा के पक्ष में सोच रहे थे तो भी सीता के साथ अन्याय कैसे कर बैठे?

‘लज्जा’ फ़िल्म में माधुरी दीक्षित से एक बड़ा सवाल उठावाया गया था। वो ये कि, ‘राम ने तो रावण से पूरी सेना को साथ लेकर लड़ाई लड़ी थी, लेकिन रावण से असली युद्ध तो सीता ने लड़ा था और वो भी अकेले... सीता अगर रावण के सामने समर्पण कर देतीं तो....? तो राम और उनकी सेना किससे और किसलिए लड़ पाते?’ सारा का सारा तामझाम धरा रह जाता। कहने वाले कह सकते हैं कि क्या कमी थी रावण में... सोने की लकां का मालिक था। रावण अगर अच्छा व्यक्ति नहीं था तो क्या ये बात राम के बारे में पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है? जहां सीता पूरी पवित्रता के साथ रावण के समक्ष डटी रहीं वहीं सीता की निष्ठा भुलाकर राम ने उन पर संशय करके उन्हे कलंकित कर दिया। राम इसके लिए जन्मों-जन्मों तक सीता के अपराधी रहेंगे। माफ़ी चाहूंगा, लेकिन मर्यादा पुरषोत्तम राम का किरदार अपुन की समझ में तो नहीं आया रे भाई। या फिर अपने ही भेजे में कोई कैमिकल लोचा होगा। क्या मालूम। सबके अपने-अपने राम सबकी अपनी-अपनी राय।

खैर....! ‘रावण’ फ़िल्म में क्या दिखाया जाएगा? अब तो मेरा ऊहापोह, कौतुहल और उत्सुकता और बढ़ गई है।

Sunday, May 30, 2010

माफ़ करना बिहारी भाइयों...


देखो भाई लोग, सबसे पहले तो आपको वादा करना होगा कि इस पोस्ट में की गई मज़ाक को Chill Pill की तरह लोगे, सीरियसली कतई नहीं लोगे... और लेना ही है तो लेलो... मेरा काम था वैधानिक चेतावनी जारी करना सो मैंने कर दी, अब मेरी बला से। तो हाज़रीन, वो क्या है ना कि हमलोग यानि न्यूज़ वाले बड़े तनावग्रस्त माहौल में काम करते हैं और उस तनाव को थोड़ा कम करने के लिए कभी कभार हल्का-भारी मज़ाक कर लिया करते हैं।

ऐसा ही उस दिन हुआ। हुआ ये कि ज्ञानेश्वरी ट्रेन हादसे के बाद लालू प्रसाद यादव की बाइट आई कि ड्राइवर आंखे मूंद कर ट्रेन चला रहा होगा... लालू का बयान मौक़े को देखते हुए सबको नागवार गुज़रा। मेरे सहकर्मी छतरपाल खिंची ने लालू को भला-बुरा कहा और गुस्से में ही बोले कि 'यार ये लालू रेलमंत्री डिज़र्व ही नहीं करता था' फिर छतर ने पता नहीं किस प्रवाह में सवाल उछाल दिया कि अगर बिहार में ट्रेनें ही नहीं चलतीं तो क्या होता?' छतर के इतना कहते ही हादसे में 65 हो चुके death toll का तनाव हल्का होने लगा।

लोग अपनी-अपनी राय रखने लगे। मेरे सहकर्मी अनुराग श्रीवास्तव बेलौस बोलते हैं.. कोई उनकी बात का बुरा भी नहीं मानता... वो अक्सर अपने बिहारी सहकर्मियों से मज़ाक करते हैं कि ‘अबे…, तुम लोग पैदा होते जन्मपत्री बनवाने की बजाए दिल्ली और मुंबई जाने वाली ट्रेन की टिकट क्यों बनवाते हो..?’

पीसीआर में रायशुमारी की सुनामी आ गई साहब। कोई बोला कि बिहार में ट्रेने नहीं चल रही होतीं तो मुंबई में राज ठाकरे घास काट रहे होते। भाईलोग ट्रेन पकड़-पकड़कर मुंबई पहुंचे और एमएनएस बनवा दी। एक बोला- 'मैंने तो यहां तक सुना है कि बिहार से चलने वाली संपर्क क्रांति दिल्ली आकर वीडियोकोन टॉवर के सामने ही डीरेल हुई थी, तभी से भाई लोग हमारे सहकर्मी हुए।' बाबा जोश ने भी चुटकी ली बोले- 'अरे भाई, वहां से ट्रेन यहां ना आई होती तो नौएडा के सेक्टर-58 की सड़क किनारे लाईन लगा के लिट्टी-चोखे वाले कैसे खड़े हो पाते होते..?' हमारे यहां रोशन कुमार बिहार के आरा से आते हैं, मज़ेदार आदमी हैं। कभी किसी बात का बुरा नहीं मानते। रोशन की हम लोग मज़ाक भी बनाते हैं क्योंकि वो लीव (leave) को ‘लीउ’ बोलते हैं यानि अगर उन्हे मालद्वीव बोलना होगा तो वो ‘मालद्वीउ’ उच्चारण करेंगे।

मैंने भी मज़े लेते हुए कहा, कि भई इतना तो तय है कि तब नौएडा का सेक्टर ग्यारह, सेक्टर ग्यारह ही रहता, ‘ईग्यारह’ ना हो गया होता।

बातें तो और भी बहुत सी हुईं अब यहां क्या-क्या लिखूं। लेकिन एक बात बता दूं कि कुछ लोग चाहते थे कि मैं ये पोस्ट ब्लॉग पर ना डालूं मगर उससे भी कहीं ज़्यादा संख्या ऐसे लोगों की थी जो ये चाहते थे कि मैं इसे पोस्ट ज़रूर करूं। यानि राज ठाकरे मुंबई में ही नहीं, यहां अपनी दिल्ली में भी ख़ूब हैं।

वैसे जहां तक मेरी मंशा का सवाल है मैंने ये क़िस्सा किसी पर हमले के तहत नहीं लिखा है। मेरा मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना कतई नहीं है। उस दिन बिहारी टारगेट हो गए वरना किसी दिन यूपी वाले, एमपी वाले तो किसी दिन दक्षिण भारतीय और तो और किसी दिन असमिया और उड़िया साथी निशाने पर होते हैं। एक वाक़्या बताता हूं आपको। हमारे पीसीआर में साउंड पैनल पर उड़ीसा से पपुना बस्तिया नाम के सहकर्मी हुआ करते थे। एक दिन लाइव शो में दर्शकों की राय फ़ोन के ज़रिए ली जा रही थी, पपुना पैनल प्रोड्यूसर को चिल्लाकर बताते थे कि कहां से किसका फ़ोन है। इसी क्रम में पपुना चिल्लाए- जमसेदपुर से सेक्सी का फोन है। पीसीआर में सन्नाटा पसर गया। ‘किसका फ़ोन है?’ प्रोड्यूसर से हैरत से पूछा। ‘जमसेदपुर से सेक्सी का’, पपुना ने दोहरा दिया। दरअसल वो जमशेदपुर से किसी ‘साक्षी’ का फ़ोन था। उस दिन के बाद इस बात को लेकर पपुना की टांग खिंचाई रोज़ ही होती थी। किसी भी माहौल में ये बात याद आने पर हम लोग आज तक हंसी नहीं रोक पाते। पपुना के और भी मज़ेदार क़िस्से हैं, फिर कभी सुनाउंगा।

यहां समझने वाली बात ये है कि हम लोग ख़बरों के प्रेशर में किसी की बात का बुरा माने बिना किस तरह relaxation तलाश करते हैं। मौक़ा मिलने पर कोई किसी की मज़ाक बनाने से नहीं चूकता, सब ठहाका लगाते हैं और बग़ैर किसी मनमुटाव के टीम वर्क जारी रहता है। ख़बर से मज़ाक हम करते नहीं, एक-दूसरे से तो कर ही सकते हैं। करते भी हैं। कहने वाले कह सकते हैं कि ये कोई पागलपन है या फिर वो ये भी कह सकते हैं कि हम लोग संवेदनहीन हैं, जो किसी दुर्घटना में मारे गए लोगों के बढ़ते death toll की ख़बर के साथ पूरी गंभीरता बरतते हुए भी हंस सकते हैं, तो मैं यही कहूंगा कि कह लीजिए जो कहना है लेकिन इतना तो सोचिए कि जो वीभत्स तस्वीरें हम आपको सिर्फ़ इसलिए नहीं दिखाते कि आप विचलित हो जाएंगे वो तस्वीरें हम ख़ुद घंटों तक देखते हैं। ना जाने कैसी-कैसी फ़ीड इनजस्ट होती हैं। विचलित होते हुए भी हमें विचलित नहीं होना होता। बिलकुल वैसे ही जैसे डॉक्टर किसी शव का पोस्टमार्टम करते हुए भी विचलित नहीं होता।

ऐसे में हंसी-मज़ाक ही तो अगली ख़बर को लेकर पूरी ईमानदारी के साथ जुटने का संबल देती है। चलता हूं एक ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही है...

Friday, May 28, 2010

ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के लोगों को तो मरना ही था...



पश्चिमी मिदनापुर के पास हावडा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस माओवादियों के बदले की भावना की भेंट चढ़ गई। तमाम लोग मारे गए। आम आदमी से लेकर प्रधानमंत्री तक सबको बेहद अफसोस हुआ होगा। अफसोस से ज्यादा और हो भी क्या सकता था और विश्वास रखिए अफसोस से ज्यादा कुछ होने वाला भी नहीं है। मुआवज़ा मिलेगा। मुआवज़े से मरनेवाला तो वापस आएगा नहीं। हां, उस पैसे से खरीदकर लाई गई हवन सामग्री से मरने वालों की आत्मा की शांति के लिए यज्ञ और पूजा पाठ ज़रूर किया जा सकता है। अरे मज़ाक मत समझिए, अब और कर भी क्या सकते हैं भई? धैर्य और संयम रखा है ना आपकी अंटी में, तो निकालिए उसे अंटी से और बिलकुल खैनी के माफ़िक दबा लीजिए मुंह में।

अब मरने वालों का अफ़सोस कौन मनाए। ना प्रधानमंत्री के पास टैम है ना गृहमंत्री के पास और ना हमारे-आपके पास। ऐसे हादसों में हताहतों के लिए आंसू बहाने के लिए तो भईया ओवर टाईम करना पड़ेगा, वरना यहां अपनी सलामती के लिए संघर्ष करने से फुर्सत ही कहां मिल पाती है। नौकरी-पेशे के अलावा पूरा दिन और आधी रात इसी उधेड़बुन में निकल जाती है कि सब्जियां, आटा, दाल और चावल सबसे सस्ते कहां मिल रहे हैं। ईमानदारी की कमाई में महीने के तीसों दिन दो वक्त की दाल-रोटी के वांदे हो रहे हैं और इक्कतीस के महीने में तो एक दिन व्रत रखना पड़ जाता है। ये हाल तो तब है जब घर में दो कमाने वाले हों, एक कमाई वाले घर में तो सोमवार, मंगलवार अथवा बृहस्पतिवार का मासिक व्रत रखे बगैर काम ही नहीं चलता। ऐसे में जब अपनी जान के लाले पड़े हों, दूसरे के दुखः में अफसोस जताना उसे मिलने वाले सरकारी मुआवजे से भी ज्यादा बड़ा योगदान है।

वह तो अच्छा है कि हमने धैर्य और संयम की घुट्टी घोंट कर पी रखी है वरना हम तो बिना किसी हादसे के दहशतगर्दी का मंजर देखकर ही कब के मर जाते। हम जिंदा ही इसलिए हैं क्योंकि हमने धैर्य और संयम का अमृत पी लिया है। हम अजर-अमर हो चुके हैं। हमने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। अब हमारा कोई कुछ भी बिगाड़ ले हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम जानते हैं कि जीना और मरना तो उपर वाले के हाथ में है बाबू मौशाय, अरे, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं रे, किसे कब, कैसे और कहां उठना है इसकी डोर तो ऊपरवाले के हाथ में हैं। हा... हा... हा..., जो इस दुनिया में आया है उसे तो एक न एक दिन इस दुनिया से रुखसत होना ही है। फिर इससे अच्छी विदाई भला क्या हो सकती है कि कुछ भोले-भाले निरीह इंसानों को पता ही न चले कि उनकी मौत दहशतगर्दों के गाल पर एक करारा तमाचा बन गई है। दहशतगर्दी के गाल पर जो तमाचा कभी न मार कर सरकार कुसूरवार बन गई वह तमाचा कुछ बेकसूरों ने मार दिया। और वैसे भी ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस ट्रेन के सवारों को आज नहीं तो कल मरना ही था। सबको मरना है। लेकिन वो अपनी मौत मरते तो शायद गुमनाम ही रह जाते, अब कम से कम नक्सलवादियों के गाल पर तमाचा जड़ने वाले मृतकों की सरकारी सूची में अपना नाम तो दर्ज करा गए।


अब देखिए इसमें करना कुछ नहीं है। टेंशन लेने का नई। बस, धैर्य और संयम के साथ काम लेना है। धैर्य और संयम का यह संशोधित अध्याय है। जिसका अंत पूर्ववत पंक्ति से ही होता है कि दहशतगर्दी चाहे देश से बाहर की हो या आंतरिक, अब और बर्दाश्त नहीं की जाएगी। धैर्य और संयम के इस संशोधित अध्याय में नक्सलियों की कड़े शब्दों में निंदा करने को इस बार विशेष महत्व दिया गया है। कुल मिलाकर धैर्य और संयम के सब्जेक्ट में सभी का कम से कम स्नातक होना अनिवार्य किए जाने के संबंध में ठोस योजना तैयार किए जाने पर काम चल रहा है। दहशतगर्दों से लड़ने के लिए धैर्य और संयम के स्नातकों की फौज तैयार की जा रही है। आने वाले समय में धैर्य और संयम की थ्योरी और प्रयोगों को भलि-भांति समाझाने के लिए अतिरिक्त कक्षाएं लगाए जाने की भी संभावनाएं हैं। धैर्य और संयम के इस कोर्स को कालांतर में परास्नातक के लिए भी अनिवार्य कर दिया जाएगा। धैर्य और संयम पर गेस्ट लेक्चर के लिए बराक ओबामा और यूसुफ़ रज़ा गिलानी को आमंत्रित भी किया जा सकता है। समय-समय पर धैर्य और संयम पर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित करा कर 'वर्तमान संदर्भों में इसकी महत्ता' विषय पर समीक्षा भी कराई जाती रहेगी। सेमिनार की प्रचार सामग्री पर एक विशेष नोट लिखा होगा- समीक्षा में धैर्य और संयम की अलोचना मान्य नहीं होगी, धैर्य और संयम की आलोचना को दहशतगर्दी की मानसिकता से प्रभावित और प्रेरित माना जाएगा।

मुझे धैर्य और संयम के इस पाठ्यक्रम का भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है। क्योंकि आने वाले समय में धैर्य और संयम के हथियार से हमें केवल आतंकवाद और नक्सलवाद को ही मुंह तोड़ जवाब नहीं देना है बल्कि आसमान से चुंबनरत महंगाई का मुकाबला भी करना है। हमें न्याय की खोखली आस में हर अन्याय का सामना धैर्य और संयम के साथ ही करना है। धैर्य और संयम के बेहतर प्रचार-प्रसार के लिए हम गांधीजी के तीन बंदरों की तरह धैर्य और संयम के बंदर भी बना सकते हैं। जिसमें धैर्य का बंदर बिजली के करंट प्रवाहित तारों से चिपका होगा और संयम का बंदर पूरी सहजता के साथ चुपचाप नीचे खड़ा यह तमाशा देख रहा होगा। यहां निजी अनुभव के आधार पर बताना चाहूंगा कि धैर्य और संयम का पाठ कंठस्थ करने के लिए गीता-सार का भी अध्ययन करें और जिन लोगों का धैर्य और संयम जवाब दे रहा है उन्हे भी गीता का सार पढ़ने से विशेष लाभ होगा। फिर देखिएगा धीरे-धीरे धैर्य और संयम कैसे हमारी राष्ट्रीय भावना बन जाएगा। क्या ख़्याल है आपका...?

कुंए के मेंढ़क

एक कुआं था साहब। पानी कम कीचड़ ज्यादा वाला। कुएं में करोड़ों मेंढ़क रहा करते थे। मेंढ़कों को कुएं का सभ्य एवं सम्मानित नागरिक होने पर बड़ा गर्व था। छाती फुलाए-फुलाए इतराकर यहां-वहां गाते फिरते थे, 'ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का.....इस देश का यारों क्या कहना..टर्रर्रर्रर्रर्रर्र...' इमोश्नल होकर सभी मेंढ़क उस कुएं को 'लोकतंत्र का कुआं' कहते थे। और कुएं से बाहर के सभी जीव-जन्तु उन मेंढ़कों को इमोश्नल फूल। कुएं में हर तबके, हर वर्ग और हर धर्म के मेंढ़क रहते थे। कुछ मेंढ़क जिन्होने अपने सिर पर सफेद टोपी पहन ली वह नेता मेंढ़क कहलाने लगे और उन्होने ने जिन्हे टोपी पहनायी वह कहलाये जनता मेंढ़क। कुएं में लोकतंत्र हो, नेता हो और जनता हो तो यह भला कैसे संभव है कि संसद न हो। तो साहब, कुएं के बीचों-बीच एक संसद भी थी।

तो भईये, कुएं की राजनीति में दो ही पार्टियों की टर्र-टर्र ज्यादा बोलती थी। एक 'कुएं के मेंढ़क पार्टी' और दूसरी 'बरसाती मेंढ़क पार्टी'. कुएं की मेंढ़क पार्टी का चुनाव चिन्ह पैर के पंजे का निशान था। हाथ के पंजे का इसलिए नहीं था क्योंकि वह पहले ही किसी और पार्टी के नाम आवंटित था। पैर का पंजा भी कोई बुरा चुनाव चिन्ह नहीं था। कम से कम पार्टी यह सोच कर तसल्ली में थी कि कीचड़ में पैर खराब करना कीचड़ में हाथ गंदे करने से कहीं ज्यादा बेहतर है। वैसे भी पैर के पंजे से ऐसी-ऐसी खुराफातें की जा सकती हैं जिसकी खबर अपने हाथ तक को न होने पावे। शुभ कामों में सत्यानाश मचाने के लिए पैर का पंजा की अड़ाया जाता है। सो पार्टी बेफ्रिक हो ली।

ऐसे ही, बरसाती मेंढ़क पार्टी का चुनाव चिन्ह था सिंघाड़ा। कमल का फूल इसलिए नहीं क्योंकि वह भी पहले ही किसी और पार्टी के नाम आवंटित था। सिंघाड़ा चुनाव चिन्ह आवंटित होते ही कुएं के मेंढ़क पार्टी को कुएं में पसरी कीचड़ में असीमित संभावनायें नजर आने लगीं। कीचड़ में सिंघाड़े का भविष्य उतना ही उज्जवल था जितना कि कमल का होता है। कुल मिलाकर इन दोनों के अलावा सभी राजनैतिक पार्टियों का प्रमुख एजेंडा 'कीचड़' ही था। नेता मेढ़कों की ओर से विचारधारा, अनुशासन और नैतिकता के नाम पर तब तक पानी किया जाता था जब तक उसकी फिसलन में जनता मेंढ़क फिसल-फिसल कर औंधे मुंह न रपटने लगें। कभी-कभी तो नेता मेंढ़क खुद अपने ही मुंह पर कीचड़ मलते और नाम दूसरी पार्टी का लगाते। राजनीति में कीचड़ और कीचड़ में राजनीति, नेता मेंढ़कों का नया संविधान था।

वैसे, कीचड़ की राजनीति करने वाले मेंढ़कों की हर पार्टी में पौ-बारह रहती है। नेता मेंढ़कों की तोंद जरूरत से ज्यादा बाहर नजर आती है और जनता मेंढ़क राजनीति की प्रयोगशाला में बारी-बारी से पेट चीरने के काम में लाए जाते हैं। अंत में पानी कम कीचड़ ज्यादा वाले इस कुएं के लोकतंत्र में छंटे हुए मेढ़कों की सत्ता अपना स्वर्णिम युग जीती है।

ये 'लोकतंत्र का कुंआ' बडा व्यापकता लिए हुए है जनाब। नज़र घुमाइए, आपको अपने आसपास ही मिल जाएगा। मिला क्या...?

Thursday, May 27, 2010

मैं ‘मुस्कान’ कैसे हुआ..

लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि भईए, ये ‘मुस्कान’ क्या है? आज बता ही देता हूं।
द्वारिका प्रसाद माहेश्रवरी जी का नाम तो सुना ही होगा आपने। उनकी कविताएं ‘उठो लाल अब आंखे खोलो, भोर भई अब मुख को धो लो...’और 'वीर तुम बढ़े चलो..', शायद ही किसी ने अपने छुटपन में ना पढ़ी हो। ये नाम ‘मुस्कान’ मुझे उन्ही द्वरिका प्रसाद माहेश्रवरी जी ने दिया है। किस्मत से मैं भी दादा के शहर आगरा में रहता था। उन दिनों कविता लिखने का शौक परवान चढ़ रहा था, कवि मित्रों के साथ ख़ूब गोष्ठियां भी हुआ करती थीं। अहो भाग्य, जो इसी क्रम में दो तीन बार दादा की अध्यक्षता में हुए कवि सम्मेलन में मुझे भी कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। ये कोई 1992-93 की बात है। तब मैं अनुराग सक्सेना के नाम से ही मंचों पर काव्यपाठ किया करता था और अख़बारों में भी इसी नाम से मेरे लेख और कविताएं प्रकाशित होते थे। दादा के साथ कविता पाठ करना गौरव की बात थी। एक दिन दादा के बगल में ही बैठ गया। तभी संचालक ने एक कवि को उनके तख़ल्लुस यानि उपनाम के साथ आमंत्रित किया। कवि महोदय का उपनाम अत्यंत हास्यास्पद था, सो सब हंस पढ़े। दादा भी हंस दिए। मैंने माहेश्रवरी जी से पूछा कि दादा आपने कोई उपनाम क्यों नहीं रखा? वो बोले- ‘अमां यार, हमारे दौर में कुल जमा 7-8 कवि हुआ करते थे, अब आजकल तो श्रोताओं से ज़्यादा कवि हुआ करते हैं। हमें पहचान के लिए किसी उटपटांग नाम की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। अब तो ऐसे ही नामों से कवियों कि पहचान होती है। कोई अपने नाम के साथ गिलहरी जोड़े हुए है, कोई सूंड़, पटाखा, भोंपू, सांड और भी ना जाने क्या-क्या। तुम भी कुछ लगाते हो क्या?’

‘नहीं दादा लगाता तो नहीं हूं लेकिन सोच रहा हूं लगा लूं.... दोस्त लोग कहते हैं कि बड़ी चुभने वाली कविताएं कहता हूं, तो ‘कांटा’ या ‘सुई’ या फिर इन जैसा कोई तख़ल्लुस रख लो लेकिन मुझे ये सब पसंद नहीं...’ थोड़ा पॉज़ लेकर मैंने कहा ‘दादा आप कि कोई नाम सुझा दीजिए ना।’ वो बोले- ‘अच्छा एक दिन को अपनी डायरी दो... कल घर आकर ले जाना... पढ़कर बताता हूं क्या उपनाम हो सकता है।’

अगले दिन मैं दादा के घर डायरी लेने पहुंचा। डायरी देते हुए दादा बोले-‘यार, बहुत रोता है तू (कविताओं में) कम से कम नाम ही ‘मुस्कान’ रख ले।’ और मैं मुस्कान हो गया। फिर काफ़ी समय तक अनुराग सक्सेना ‘मुस्कान’ के नाम से लिखता रहा लेकिन फिर दोस्तों की सलाह पर सिर्फ ‘अनुराग मुस्कान’ कर लिया।

बालकवि द्वारिका प्रसाद माहेश्रवरी ओजस्वी कवि थे। ये उन्ही को ओज है कि मैं आज रोतड़ू से मुस्कान हो गया हूं।

Wednesday, May 26, 2010

भगवान के नाम पे...

नौ साल का करियर हो गया होता अपना बाबागीरी में।


भाई साहब, बालाजी मंदिर वालों ने 1070 किलो सोना बैंक में जमा कराया है पिछले दिनों। भक्तों ने चढ़ावे में चढ़ाया था सोना। मैं तो ख़बर सुनकर ही मालामाल हो गया। यही तो कलयुग है। इधर भक्तों का इन्क्रीमेंट तक अटका हुआ है, और उधर भगवान बिलियनेयर होते जा रहे हैं। बालाजी तो खैर सबसे अमीर भगवान हैं ही लेकिन बाक़ी के भगवान लोग भी कम मज़े में नहीं हैं। ये कैसी विडंबना है प्रभु, भक्त भरोसे भगवान मालामाल और भगवान भरोसे भक्त कंगाल। हे भगवान, ये क्या हो रिया है?

भगवान तो भगवान, भगवान का गुणगान करने वालों की भी कम ऐश नहीं है। आपने कभी जिस महाराज का नाम तक नहीं सुना वो भी कथा बांचने के लिए एक साथ हज़ारों भक्तों को क्रूज़ पर ले जाते हैं। लंदन, पेरिस और न्यूयार्क की हवाई यात्राएं कराते हैं। कोई क्रूज़ पर कथा बांच रहा है तो कोई 50,000 हज़ार फीट की उचांई पर भजन कीर्तन कर रहा है। नारायण...नारायण। जो कभी किसी चैनल पर प्रवचन करते थे उन्होने वो चैनल ही खरीद मारे। जो कभी भगवान के वंदन के साथ इस फील्ड में उतरे थे, वो ख़ुद ही भगवान बन बैठे। परमपूज्यपाद हो गए, प्रातःस्मरणीय कहलाने लगे।

नौ साल पहले एक भारी भूल ना की होती तो मैं भी आज एक जाना माना घुटा संत होता। अरे कुछ नहीं..., आस्था चैनल के लिए एक कथावाचक महाराज के प्रवचनों की डील कराई थी। नौ लाख़ की डील थी, जिसमें मेरा कमीशन 90,000/- था। कोई लिखित कांट्रेक्ट हुआ नहीं था, पूरी डील वायदा कारोबार के तहत हुई थी। खा गया गच्चा। फंस गया कमीशन। आज नहीं कल, कल नहीं महीने भर बाद, महीने नहीं साल भर... हार कर मैं पहुंच गया मुंबई। मालिक से मिलने। पैसे मांगे तो बोले-‘अरे 90,000 रुपए लेकर क्या करेंगे अनुराग जी, आप तो करोड़ों के आदमी हैं। क्या दमदार आवाज़ है आपकी। चलिए हम आपको आस्था पर स्लॉट देते हैं और तीन महीने का समय... कराना आपको ये है कि रामायण और महाभारत को अंग्रेज़ी में नाट्य पटकथा के रूप में कंठस्थ कर लीजिए। तीन महीने बाद चैनल पर आपके प्रवचन प्रारंभ। पैसा हमारा.. दमदार आवाज़ में प्रस्तुति आपकी। साल भर में ही करोड़पति हो जाएंगे आप। महाराज होने का तमगा अलग।’

लोग आंखों में सपने सजाकर मुंबई जाते है और मैं मुंबई से आखों में सपने सजाकर लौट रहा था। प्रस्ताव के बारे में पता चलते ही घर में रोआ-चिल्लाट मच गई। मां छाती पीट-पीट कर रोने लगी-‘अरे, क्या इसी दिन के लिए पैदा किया था तुझे कि एक दिन बाबा बन जाए। नहीं बेटा नहीं... बस ये मत करना... तुझे मेरी क़सम।’ पिता के देहांत के बाद मां ने मुझे बड़ी मुश्किलों से पाला है। सो मैं उसके रुदन पर पसीज गया। बाबाजी बनने का आइडिया मां के आंसूओं में डाइलियूट हो गया।

आज बड़ा अफ़सोस होता है भाई। नौ साल का टनाटन करियर हो गया होता अपना बाबागीरी में। मस्त लाइफ़ कट रही होती। और हां, धन-दौलत, ऐश-ओ-आराम और वैभव देखकर शायद मां को भी कोई शिकायत नहीं होती। वो नौ साल पहले भी मेरी मां थी और आज भी मेरी मां है। आस्था का प्रपोज़ल मान लिया होता तो वो भी सिर्फ मां ना रहती। अरे भाई गुरूमां हो गई होती। क्या ख़्याल है आपका...?


और हां, एक स्वर्णिम करियर से तो मुझे हाथ धोना ही पड़ा, वो 90,000 रुपए भी गए सो अलग।

Tuesday, May 25, 2010

रूचिका आज कहीं 19 साल की होगी...

न्याय हमारी पहुंच से कितनी उम्र दूर है...?

रूचिका आज अगर इस दुनिया में होती तो 32 साल के आसपास होती और अगर आप आत्मा के शरीर बदलने में यक़ीन करते हैं तो आपको ये भी मानना पड़ेगा की रुचिका ने अगर दूसरा जन्म लिया होगा तो वो आज किसी रूप में 19 साल की हो चुकी होगी। रुचिका ने जब आत्महत्या की थी तो वो 13 साल की थी। यानि रुचिका आज उस उम्र से भी 6 साल बड़ी होगी जिस उम्र में उसे राठौर ने ख़ुदकुशी के लिए मजबूर किया था। मैंने आपको इतना mathematics इसलिए समझाया कि आप समझ सकें कि जिस देश में आप रहते हैं उसमें न्याय आपकी पहुंच से कितनी उम्र दूर है।

कल्पना कीजिए कि कहीं जन्म ले चुकी 19 साल की रूचिका आज अपने घर में बैठकर टीवी पर ये ख़बर देख रही होगी और रूचिका गिरहोत्रा के लिए इंसाफ़ की उम्मीद में प्रार्थना कर रही होगी और घर से बाहर..... घर से बाहर ना जाने कितने ही एसपीएस राठौर उसे दबोचने के लिए तैयार होंगे। तो क्या ये दमनचक्र जारी रहेगा। एक राठौर पकड़ा गया, कितने छूट जाते होंगे।

वैसे कमाल नहीं है इस देश की क़ानून व्यवस्था? उन्नीस साल बाद रुचिका से छेड़खानी के मामले में मनचले राठौर को सज़ा होती है, और वो भी ड़ेढ साल की। ये भी अभी निचली अदालत का फैसला है। यानि पीड़ित परिवार के लिए 19 साल बाद भी ये लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है। अभी तो खैर राठौर का ठौर जेल है लेकिन कितने दिन? राठौर के सामने हाई कोर्ट का दरवाज़ा है, सुप्रीम कोर्ट की चौखट है। मलतब ये कि राठौर सालों तक इन अदालतों के दरवाज़े पीट-पीट कर कड़ी सज़ा से ज़्यादा से ज़्यादा समय तक बचता फिर सकता है। मुमकिन है, इन सालों में राठौर अपनी स्वाभाविक मौत मर भी जाए। लेकिन याद रहे, रुचिका अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरी थी। उसे राठौर ने मरने पर मजबूर किया था। एक 13 साल की मासूम बच्ची को किस क़दर प्रताड़ित किया होगा इस वहशी ने।

फिर भी हमारे देश की क़ानून व्यवस्था ने उसे छेड़खानी के मामले में अधिकतम सज़ा, जो दो साल की होती है, वो नहीं दी। कारण समझा जा रहा है राठौर की बढ़ती उम्र और उसकी बीमारियां। तो क्या रूचिका की उस उम्र को नज़रअंदाज़ कर दिया गया? क्या जिस उम्र में रुचिका ने वो मानसिक उत्पीड़न सहा होगा उसके सामने दो साल की सज़ा काफी है? और राठौर को तो वो भी नहीं हुई। जब राठौर को छः महीने की सज़ा हुई थी तो वो फ़िल्म 'कमीने' के फ़ाहिद कपूर की तरह मुस्कुरा रहा था। आज डेढ़ साल की सज़ा हुई तो सिट्टीपिट्टी गुम। लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है। उसकी पत्नी तो महंगे ब्रांड का चश्मा पहने कर मुस्कुरा ही रही है। और सबसे बड़ी बात तो ये कि रूचिका को न्याय केवल राठौर के चेहरे से मुस्कुराहट भर छीन लेने से तो मिलेगा नहीं।

आज इसी मसले पर Live Bulletin कर रहा था। केन्द्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ से Phono हुआ तो उन्होंने भी कहा कि किसी से छेड़खानी की सज़ा दो साल बहुत कम है, और विशेषकर बच्चियों के साथ हुई छेड़खानी के मामले में तो बहुत कम। उन्होने न्याय व्यवस्था में बदलाव की पैरवी भी की। मेरी समझ में ये नहीं आता कि जब लचर न्याय एवं क़ानून व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत इतनी शिद्दत के साथ महसूस की जाती रही है तो इंतज़ार किस बात का है?

या तो आलसी व्यवस्था बदले या फिर 19, 20, और 25 साल बाद निचली अदालतों से मिले न्यायसंगत फैसलों का स्वागत करने की हमारी आदत।

Monday, May 24, 2010

'जब पप्पू के बापू श्यामलाल से मिले भगवान शंकर'

'जब पप्पू के बापू श्यामलाल से मिले भगवान शंकर'

एक सूखा ग्रस्त गांव था। ये उस गांव के दो बेचारे किसानों की कहानी है, रामलाल और श्यामलाल। दोनों अभागे सूखे की मार से त्रस्त थे। तीन सालों से आसमान एक बूंद नहीं टपका था। जी हां, बिलकुल फ़िल्म लगान के चंपारन गांव की सी कहानी थी। कहीं से उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आ रही थी। खेत और पेट दोनों सूख चुके थे। अब तो बस भगवान का ही आसरा था। लेकिन एक समस्या थी, रामलाल जहां घोर आस्तिक किस्म था वहीं पट्ठा श्यामलाल विकट नास्तिक। रामलाल का भरोसा धर्म पर तो श्यामलाल भाग्य भरोसे।

तो आगे हुआ ये कि भईए, किसान रामलाल ने तो अपने खेत में शिव जी का एक मंदिर बनाया और पिल पड़ा पूजा पाठ में। उधर श्यामलाल की महरारू यानि घरवाली ये जानती थी कि पप्पू के बापू यानि श्यामलाल पूजापाठ तो करेंगे नहीं, फिर भी अभागी ने शंकर जी की एक छोटी सी मूर्ति तो लगा ही खेत के बीचों बीच। और ख़ुद घर में पूजा अर्चना शुरू कर दी। अब रोज़ होता ये था कि रामलाल तो बर्ह्म महूर्त से रात्रिकाल के अंतिम पहर तक शिव चालीसा का पाठ करते नहीं थकता और उधर श्यामलाल बर्ह्म महूर्त से रात्रिकाल के अंतिम पहर तक सूखे खेत में गड़े शिवशंकर की मूर्ति को गालियां बकता। वो बिना बात अक्सर भड़क उठता, शिव शंकर को भद्दी गालियां देता, एक बार मिल लेने पर देख लेने की धमकियां देता। थूकता, लतियाता और शिव जी में कीड़े पड़ने की बददुआ देता। मूर्ति हटाने की हिम्मत तो थी नहीं श्यामलाल की, घरआली ने जो लगाई थी। खैर साहब, दो साल तक ऐसा ही चलता रहा.... बस, ऐसा ही चलता रहा। एक खेत में पूजापाठ और दूजे में गाली-गलौज।

अब बारी ऊपर पार्वती के साथ बर्फ़ीले कैलाश पर्वत पर विराजे शिव शंकर की थी। पार्वती से बोले- ‘सुनो प्रिये, हम ज़रा अभी आते हैं। एक भक्त बड़ी श्रद्धा से हमारी वंदना करता है, उसे वरदान देकर आते हैं।’ शिव शंकर प्रकट हो गए श्यामलाल के सामने। वही श्यामलाल जो शिव शंकर को खरी-खोटी सुनाता था। बोले- ‘हम प्रसन्न हुए बच्चा, मांग क्या मांगता है?’ श्यामलाल भिन्नौट हो गया, भड़क उठा। चिल्लाया- ‘भाग जा शिवशंकर के बच्चे, वरना खैर नहीं तेरी... साल्ले इसी हल से ज़मीन में गाड़ दूंगा... मेरी दिल से निकली बददुआ लगेगी तुझे, देखना कीड़े पड़ेगें तुझमें... तमाशा देखने आया है हमारा... हमें कुछ नहीं चाहिए... जा भाग जा यहां से।’ शिवजी मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए ‘तथास्तु’ कह कर कट लिए। उनके अंतर्ध्यान होते ही श्यामलाल के खेत से सोने की अशर्फियां निकलने लगीं। श्यामलाल के दिन बहुर गए।

शिवजी कैलाश वापस लौटे तो पार्वती जी माथा पकड़े बैठी थीं। बोलीं- ‘धत्त तेरे की, ई धतूरे की पिनक में ये क्या कर आए प्रभु, ग़लत आदमी को वरदान दे दिया, मेरा तो कब से माथा ख़राब है... रामलाल और श्यामलाल में टोटल कंफ्यूज़ कर गए आप... जो गाली बकता था उसकी लाइफ़ सेट कर दीस।’ शिवशंकर मुस्कुराए, बोले- ‘नहीं प्रिया, हम कतई कंफ्यूज़ नहीं हैं... हमने सही आदमी को वरदान दिया है... रामलाल हमारा नाम लालच और स्वार्थ के चलते लेता है, लेकिन श्यामलाल निस्वार्थ भाव से हमारा नाम लेता है... गालियों के साथ ही सही लेकिन पूरे मन, कर्म और वचन के साथ हमरा नाम लेता है। हमारा सच्चा भक्त तो श्यामलाल ठहरा। इसलिए हम उससे प्रसन्न हुए। समझी....?’

‘आप तो एकदम से ग्रेट हैं जी।’, पार्वती जी इतराते हुए बोलीं।

मॉरल ऑफ़ द स्टोरी- जो तुम्हे बेनागा गालियां बकता है... वो तुम्हारा दुश्मन नहीं बल्कि वो तो तुम्हारा सच्चा भक्त है। उसे गाली के बदले गाली नहीं, वरदान दो वरदान। अमां अब तो अपने सच्चे भक्तों के पहचानना सीखो। मैं भी आजकल अपने सच्चे भक्तों को चिन्हित कर रहा हूं। मित्रों.... उन्हे वरदान जो देना है।

Friday, May 21, 2010

काश...!

काश! मेरा भी कोई रिमोट कंट्रोल या ऑन-ऑफ बटन होता...

रात के डेढ़ बज रहे हैं। सोने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं। कमरे में सिर्फ नाइट बल्ब जल रहा है। नाइट बल्ब की रोशनी में उसके चारों तरफ की दीवार के सिवाए तीन नंबर पर चलता हुआ सीलिंग फैन दिखाई दे रहा है। सोच रहा हूं इंसान क्यों हुआ, पंखा क्यों नहीं। बटन से चलता, बटन से रुकता। बटन से ही धीमा और तेज होता। इंसान हूं। बटन की बजाए मन से चलना पसंद करता हूं। यही रात के इस वक्त तक जागने की वजह भी है शायद। रात के इस सन्नाटे को इससे पहले भी महसूस किया है लेकिन इतनी शिद्दत से पहली बार महसूस कर रहा हूं। पहले ऐसे सन्नाटे में दिल की धड़कने और सांसों की आवाज सुनाई देती थी। नाइट बल्ब तब भी जलता था, सीलिंग फैन तब भी चलता था। लेकिन आज दिल की धड़कनों और सासों की आवाज से ज्यादा सीलिंग फैन की आवाज और उससे कटने वाली हवा की सांय-सांय सुनाई दे रही है। मेरी धड़कन की आवाज में और भी आवाजें जुड़ गई हैं, फिर इतना सन्नाटा क्यूं है?

मैं बहुत खुश होता। मैं बहुत सुखी होता अगर मेरा भी कोई रिमोट कंट्रोल या ऑन-ऑफ बटन होता। सीलिंग फैन के बारे में सोच रहा हूं। जाड़े के महीनों में आराम तो मिलता है इसे। मेरे आराम का कोई मौसम नहीं। न मौसम, न बटन। क्या यही खालीपन खल रहा है। कमरे के नीले लाइट बल्ब और आसमान के नीलेपन की रिक्तता में कितनी समानता लग रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कमरे में नीला आसमान पसर गया हो। लेकिन जानता हूं कि आसमान आकार में मेरे कमरे के नीले रंग से कहीं व्यापक है, फैला हुआ है। भले ही उसका खालीपन मेरे कमरे के खालीपन से ज्यादा विस्तार लिए हुए नहीं है। रात के आसमान के नीले कैनवास पर आधे चांद और पूरे सितारों की एक खूबसूरत पेंटिंग बनी है। कमरे के आसमान पर उखड़े और सीले हुए पलास्तर के सिवा उपर रहने वाले मकान मालिक की चहलकदमी की खटपट के सिवा कुछ नहीं। सुबह शेव करते समय ख़ुद से ही जिंदगी से जुड़े कई सवाल पूछता हूं। सवाल शेव के फोमयुक्त झाग की तरह फैलते जाते हैं। गुणा होते जाते हैं। जवाब भी मिलता है तो एक नए सवाल की शक्ल में। अकसर सवाल यह कि कौन हूं मैं, कहां से आया हूं? क्यों आया हूं? कहां जाना है? कहां जा रहा हूं?

इस एक बार मिले जीवन को किसी और की मर्जी से सहर्ष(?) जी रहा हूं। क्यों? अपनी इच्छा से नहीं जी रहा। क्यों? शिकायत भी नहीं करता। क्यों? ना दूसरे की मर्जी से जीवन जीकर खुश हूं ना अपना मर्जी से ना जीकर। अगर मैं जीवन के सर्कस में जोकर भी हूं तो मेरा कोई एक रिंगमास्टर क्यों नहीं है। बहुत सारे क्यों हैं? मैं खुद पर पूरा यकीन करता हूं, लेकिन मुझपर हर कोई यक़ीन नहीं करता। ऐसा क्यों?

ज़िंदगी को समझने के फेर में जिंदगी को जीना ही भूल बैठा, जिंदगी को भरपूर जी लेता तो शायद वो समझ में ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाती। अब बहुत कंफ्यूज़ हूं। है कोई हल...?

Tuesday, May 18, 2010

संस्मरण

बद्री विशाल ने मुझे नहीं, रविकांत को बुलाया था....



(ये एक दुखःद संस्मरण है। भगवान के द्वार पर ले जाने वाले रास्ते से बीच में लौट आना निश्चित ही निराश करने वाला रहा। गला ख़राब है इसलिए हर किसी के पूछने पर पूरा वाक्या नहीं बता सकता... सोचा डॉक्टर की हिदायत पर ज़ुबान बंद है तो क्या शब्दों की ज़ुबान तो चला ही सकता हूं.. )



मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी लाइव शूट से पहले ही मुझे बीच में उसे अधूरा छोड़कर आना पड़ा हो। मैं व्यथित हूं। ये बद्रीनाथ कपाट खुलने का लाइव शूट था। 19 मई को 8 बजकर 7 मिनट पर कपाट खुलने हैं(यानि कल) और उसे कवर करने के लिए पूरी तैयारी के साथ 16 मई को सुबह चार बजे मैं और कैमरापरसन वेद पांडे बद्रीनाथ लाइव के लिए रवाना हो गए। सफ़र लंबा था। हमारा मकसद उसी दिन जोशीमठ पहुंचने का था। दूसरे दिन यानि 17 तारीख़ को जोशीमठ के नृरसिंह मंदिर से शंकराचार्य की पालकी उठने के साथ ही बद्रीनाथ कपाट खुलने के आयोजन का शुभारंभ होता है। हमें वो अपने डेली शो समर्पण के लिए कवर करना था। बहुत ही संगीतमय और भव्य आयोजन होता है ये। मैं इस आयोजन को सहारा समय उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड के लिए पहले भी तीन बार कवर कर चुका हूं। इस बार ये सौभाग्य मुझे मेरा चैनल स्टार न्यूज़ दे रहा था। मैं बहुत उत्साहित और रोमांचित था।

लेकिन शायद इस बार बद्री विशाल को कुछ और ही मंज़ूर था। दरअसल परेशानी की शुरूआत 12 मई से होती है। 12 मई की दोपहर अपने सहकर्मी सुशील जोशी के साथ कैंटीन में थम्स-अप पी ली। हम लोग दोपहर के खाने के बाद अक्सर कोल्डड्रिंक पीते हैं। कभी कोई परेशानी भी नहीं होती लेकिन उस दिन शाम गले में ख़राश सी महसूस होने लगी। मैं जानता था मेरा गला थोड़ा सैंसेटिव है और मेरा ही क्या गले से काम लेने वाले तमाम लोग जैसे सिंगर और एंकर का गला काफी संवेदनशील होता है। लेकिन कोल्डड्रिंक से चूंकि ऐसी कोई परेशानी पहले कभी हुई नहीं थी इसलिए पीने से पहले सोचा भी नहीं। रात तक परेशानी में थोड़ा इज़ाफा हुआ तो अपने डॉक्टर गुलाब गुप्ता को फ़ोन करके एपोइंटमेंट मांगा। उन्होने कहा कि आने कि ऐसी कोई ज़रूरत तो नहीं है बस ठंडे से परहेज़ करें और गर्म पानी से गरारे करें और Alex Cough Lozenges चूसते रहें, इससे आराम मिलेगा। आराम ना मिले तो कल दिखा दें। डॉक्टर की सलाह काम कर गई और मुझे आराम मिल गया। हांलाकि शरीर में हल्की टूटन और हरारत बरकरार रही। सोचा थकावट होगी। कुल मिलाकर मैं आराम महसूस कर रहा था।

मैं बद्रीनाथ जाने की तैयारी में जुट गया। बद्रीनाथ मेरी पंसदीदा जगह है। मैं चार बार बद्रीनाथ जा चुका हूं। मैं पहाड़ पर कभी भी कहीं भी जा सकता हूं। घूमने के लिए पहाड़ मेरी पहली पसंद रहे हैं और शायद हमेशा रहेंगे। पांचवी बार बद्रीनाथ जा रहा हूं, मैं प्रसन्न था। मन ही मन रूपरेखा तैयार कर रहा ता कि कौन सा Event अलग तरह से कैसे कवर किया जा सकता है। भव्य और रघुवीर रिचार्या जो स्टार न्यूज़ के कार्यक्रम समर्पण का हिस्सा हैं और प्रोड्यूसर सिद्धार्थ श्रीवास्तव जो बद्रीनाथ पर Documentry बना रहे थे, उनसे भी सलाह लेता रहा। अब सब ठीक था। मुझे तो कम से कम ऐसा ही लगा।

…..तो 16 के ब्रह्म महूर्त में हमें निकलना था और 15 को मेरी ईवनिंग शिफ़्ट थी। शाम 5 बजे recorded चलना था। 6 बजे भी recorded था। मेरे पल्ले एक बस 7 बजे का ‘आज की बात’ था। यूं तो मेरा उसके बाद भी रात 9 बजे का बुलेटिन था लेकिन वो भी recorded था सो मुझे 7 बजे वाला बुलेटिन करके जल्दी जाने की इजाज़त मिल गई। ‘आज की बात’ नकली आइसक्रीम पर केन्द्रित था। कानपुर और अलीगढ़ में आइसक्रीम की नकली फ़ैक्ट्रियां पकड़ी गई थीं जो पेंट और पोस्टर कलर से आइसक्रीम बना रही थीं। हमने भी न्यूज़रूम में कैनवास लगाया, बुलेटिन की शुरूआत कैनवास पर पोस्टर कलर से मेरे आइसक्रीम लिखने के साथ हुई। मैंने लीड ली कि मैं तो इस पोस्टर कलर से सिर्फ आइसक्रीम लिख रहा हूं लेकिन कुछ लोग तो इससे आइसक्रीम बना रहे हैं। अच्छा प्लान था। एजेंडे के मुताबिक नकली आइसक्रीम के नुकसान बताने के साथ-साथ मुझे ON AIR असली आइसक्रीम भी खानी थी, ये कहते हुए कि ये आइसक्रीम नकली नहीं है क्योंकि इसे निर्मित करने वाली फैक्ट्री में आइसक्रीम बनाने के सभी मानकों का ख़्याल रखा गया है। आईडिया, बेहतर तरीक़े से दर्शकों तक बात पहुंचाने के अलावा मज़ेदार भी था, सो मैं पैकेज के दौरान दो-तीन चम्मच आइसक्रीम यूंही खा गया। कुछ और ख़बरों के साथ बुलेटिन ख़त्म हुआ और मैं मेकअप remove करके घर को रवाना हुआ।

गले में कील सी चुभना शुरू हुई। मैं मान ही नहीं सकता था कि आइसक्रीम खाने से ऐसा हो रहा है। क्योंकि एक तो इतनी ज़्यादा मात्रा में मैंने आइसक्रीम खाई नहीं थी और दूसरा ये कि आइसक्रीम मैंने कोई पहली बार नहीं खाई थी। बेमौसम भी नहीं नहीं खाई थी। फिर ये क्या हो गया। मुझे खांसी भी आने लगी। मामला उतना गंभीर नहीं लगा। मैंने बैग लगाया और Himalaya के Saptalin Syrup के दो चम्मच पी कर सो गया। सुबह साढ़े तीन बजे Car Club की गोरी चिट्टी Innova ड्राइवर तेजपाल के साथ दरवाज़े पर खड़ी थी। मैं उसमे सवार होकर Camera Person वेद पांडे के घर पंहुचा और पांच बजे हम मुरादनगर की सरहद पर थे। ड्राइवर को हमेशा की तरह हमने बता दिया कि अगर कहीं पर उसे थकावट हो या नींद आए तो तुरंत हमें बता दे। जान है तो जहान है। वो बोला चिंता मत कीजिए सर मैं लगातर 24 घंटे गाड़ी चला सकता हूं। विडंबना ये की वो मुरादनगर Cross करते ही झपकियां लेने लगा। मैंने और वेद ने फैसला किया कि हम पूरे रास्ते ड्राइवर से बतियाते चलेंगे। हमने किया भी वैसा ही। लेकिन मुझे बोलने में परेशानी महसूस सी हो रही थी। बोलते ही गले में छिलन सी होती थी।

खैर, ऐसा तो अक्सर हो जाता है। रात को ऐसा-वेसा कुछ खा लिया था क्या? वेद ने पूछा। आइसक्रीम- मैंने बताया। बस, उसी से हो गया ये। अब ऐसा करना कि आगे जहां भी रुकें वहां गरम पानी के गरारे कर लेना। वेद पांडे भले ही माने लेकिन मैं अभी भी मानने को तैयार नहीं हूं कि ये आइसक्रीम की वजह से हुआ।

हमारा
ड्राइवर भी बड़ा ढ़ीला था। औंघा-नींदी में या बातों-बातों में बिना टैक्स कटाए ही उत्तराखंड में दाखिल हो गया और ये बात भी पट्ठे को हरिद्वार पहुंचकर याद आई। बोला, अरे सर यहां कहीं टैक्स कटता है। अब क्या करें? अपने स्ट्रिंगर रोहित सिखोला को फ़ोन लगाया। रोहित ने कहा कोई बात नहीं रायवाला पर RTO बैठता है, वहां जा कर टैक्स जमा करा दें। अब ड्राइवर रायवाला में RTO Office ढ़ूंढता रहा। कभी आगे कभी पीछे, कभी दांये कभी बाएं। फिर क्या हुआ? होना क्या था। आरटीओ को ढ़ूंढने के क्रम में आगे निकल गए, किसी ने बताया कि पीछे रह गया। पीछे लौटे तो आरटीओ डंडा लेकर ख़ुद ही प्रकट हो गया।
- गाड़ी कहां से आ रही थी?
- साहब, ऋषिकेश की तरफ से। वर्दी वाला उसका चेला बोला।
- लाओ, पेपर दिखाओ....... टैक्स रसीद कहा है?
- सर, वही तो कटानी है.... हमारा ड्राइवर मिमियाया।
- बहुत अच्छे..... निकालो 3986/- रुपए


हो गया बंटाधार। लौटते का टैक्स लगा... ढपोरशंख की लापरवाही की वजह से। नादान बहुत गिडगिडाया कि साहब मेरी तनख्वाह से कट जाएंगे, लेकिन कोई लाख कोशिशों के बावजूज भी उसकी मदद ना कर सका। ना वो ख़ुद, ना मैं, ना वेद और रोहित सिखोला। तिगुना टेक्स लगा।

RTO से बातचीत और बहस के क्रम में मेरा गला बैठ चुका था। हम वहां से आगे बढ़े और सुबह 10 बजे हम ऋषिकेश में थे। गला ज़रूर ख़राब था लेकिन हम समय पर चल रहे थे। तभी पता चला कि अभी तो ड्राइवर को पहाड़ का लाइसेंस और ग्रीन कार्ड बनवाना है जिसके बिना टैक्सी ऊपर नहीं जा सकती। हमने सिर पीट लिया।

मेरे गले की समस्या बढ़ती जा रही थी। मैंने डॉक्टर गुलाब गुप्ता को फ़ोन लगाया। उन्होने सबसे पहले हिदायत दी कि बोलें बिलकुल नहीं। मैंने कहा कि कल से तो मुझे बस बोलना ही बोलना है। डॉक्टर साहब बोले कि कम से कम आज तो चुप रहें और Lorfast-AM की टेबलेट सुबह-शाम लें, साथ में गर्म पानी के गरारे करें और Alex Cough Lozenges की गोलियां चूसें। वाह रे ऋषिकेश, पूरे साढ़े तीन घंटे में तो ड्राइवर का लाइसेंस और ग्रीन कार्ड बना और उसके बाद पूरे ऋषिकेश में कहीं Lorfast-AM और Alex Cough Lozenges नहीं मिली। डॉक्टर की कैमिस्ट से बात भी करा दी लेकिन किसी के पास Alternative Medicine तक नहीं मिला। डॉक्टर मुझे कोई दो Salt देना चाहते थे जिनमें से एक नहीं मिल रहा था। 2 बजे ऋषिकेश से Strepsils चूसते-चूसते कोडियाला पंहुचे, वहां Gmvn के रेस्त्रां में दोपहर 3 बजे खाना खाया, गर्म पानी से गरारे भी किए। नाश्ता हमने किया नहीं था सो पेट की बुरी हालत थी। कोई फ़ायदा नहीं, मेरी आवाज़ ने अब बैठना शुरू कर दिया था। 4:15 पर हम श्रीनगर पंहुचे। उम्मीद थी कि यहां दवा ज़रूर मिल जाएगी लेकिन मिली नहीं। मैंने फिर गुलाब गुप्ता को फ़ोन किया, वो बोले दवा आपको मिल नहीं पा रही.... गले का मामला है मुझे चिंता हो रही है क्योंकि खाना भी आप बाहर का खा रहे हैं और ऊपर तो ठंड भी अच्छी-खासी होगी। ऐसा कीजिए आप वहीं किसी डॉक्टर को दिखा दीजिए। और अपना ख्याल रखिए।

कौन सा डॉक्टर मिलेगा इस समय? मैं श्रीनगर के जैन केमिस्ट पर था सो उन्ही से पूछ लिया। पता चला कि आज तो रविवार है इसलिए डॉक्टर का मिलना मुश्किल है। मुझे तब पहली बार डर सा लगा। ये क्या है गया मुझे? संयोग से वहां खड़े एक सज्जन ये पूरा प्रकरण देख और सुन रहे थे। बोले, माफ़ कीजिएगा! मेरा नाम संजय है, मैं दिल्ली से ही हूं और इत्तेफ़ाक से एक डॉक्टर हूं। दरअसल कल आडवाणी जी गंगोत्री कपाट खुलने के मौके पर वहां जा रहे हैं और उसी काफिले में यहां के एक स्थानीय नेता भी शामिल हो रहे हैं, मैं उनका फैमिली डॉक्टर हूं और उन्ही के लिए Vaccine लेने आया था। आप एक काम कीजिए Azithomycin 500 और Montair- lc की एक-एक गोली ले लीजिए। Azithomycin 500 तीन दिन और Montair- lc पांच दिन। आपको आराम मिलेगा। मरता क्या ना करता। मैंने वही किया। दवा लेकर लगा कि हां, अब दवा मिल गई है अब तो ठीक होना शुरू हो जाऊंगा।

पहले सोचा कि अब आज के लिए श्रीनगर में ही रुक लिया जाए। ड्राइवर को भी बीच-बीच में झपकी सी आ जाती थी, लेकिन ड्राइवर बोला कि मुझे कोई परेशानी नहीं है, अगर आप आगे चलना चाहें तो चल सकते हैं। मैंने सोचा कि चलों एक घंटे का रास्ता है यहां से रुद्रप्रयाग का, वहीं चलकर स्टे करते हैं, सुबह जल्दी निकल लेंगे जोशीमठ के लिए। एंटीबायोटिक के साथ मैने एंटीएलर्जिक भी ली थी सो मुझे नींद आने लगी। कुछ ही दूर चलकर कालियासौंड़ पर एक ज़ोरदार आवाज़ हुई। मैं और वेद हड़बड़ागए। ड्राइवर भी सकपका गया। वो अभी-अभी देहरादून के रोहन मोटर्स से Maruti Alto निकलवाकर ला रहे थे। उन्होने हमारे ड्राइवर से ओवरटेक मांगा। खिड़की के शीशे बंद होने की वजह से ड्राइवर हार्न सुन नहीं पाया या क्या मालूम वो फिर सो रहा था। जैसे ही Alto बराबर से ग़ुज़रने लगी, हमारा ड्राइवर हड़बड़ा गया। नतीजा, अनकी Alto हमारी Innova से रगड़ती हुई चली गई। Alto का पिछला दरवाज़ा और उसकि बाद वाला पैनल अंदर धंस गया। दोनों एक दूसरे की ग़लती बताने लगे। लेकिन वो लोकल थे, रसूखवाले थे। कोई प्रबंधक थे, ज.उ.मा.वि श्रीकोट, नंदकेशरी, चमोली के, जिनकी Alto थी। वो पुलिस को बुलाने लगे, इधर Car Club के दिल्ली में बेठे लोग नहीं चाहते थे कि मामला पुलिस में जाए। Reputation का सवाल था। मैंने ऑफिस फ़ोन लगाया तो बॉस ने कहा अतुल चौहान और रोहित सिखोला को फोन करके मदद लो और मामले का हल निकालो। पूरे ढ़ाई घंटे के High Voltage Drama के बाद मामला 4000/- में निपटा। गनीमत ये रही वहां रास्ता संकरा नहीं था वरना किसी एक की गाड़ी तो गई थी खाई में। ड्राइवर को बचाने के लिए ALTO वालों से, कार क्लब वालों से और अपने Stringer से हिम्मत ना होते हुए भी बातें करनी पड़ीं.... बहस करनी पड़ी। मेरे गले का बुरा हाल था। जबकि डॉक्टर ने कहा था, बोलना मत। ये 4000/- भी ड्राइवर की जेब से गए। ड्राइवर रो रहा था। मुझे लगता है कि या तो किसी पारिवारिक अथवा official मामले को लेकर वो तनाव में था या फिर वो पहाड़ी रास्ते पर पहली बार आया था। उसने आख़िर तक मेरे इन दोनों सवालों के जवाब नहीं दिए।

शाम के 6-7 बज रहे थे। अब मुझे गले में दर्द के साथ हल्का बुखार भी महसूस होने लगा था। जैसे-तैसे हम रुद्रप्रयाग पहुंचे, वहां होटल में कमरा लिया। हम बेहद थके हुए थे। भूख़ लग रही थी लेकिन खाने की हिम्मत नहीं थी। मैं अब तक दो बार गर्म पानी के गरारे कर चुका था। लेकिन आराम एक पैसे का नहीं मिल रहा था। मैंने रात कोई साढ़े आठ-नौ बजे के करीब अपने बॉस को फोन करके अपनी हालत बताने के साथ ही दूसरे दिन के जोशीमठ लाइव की चर्चा की। बॉस ने गले के लिए एहतियात बरतने की सलाह के साथ ही इत्मिनान दिलाया कि अगर तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है तो चिंता मत करो, जोशीमठ वाला कवरेज रोहित सिखोला कर लेंगे। तुम अपना ख्याल रखो।

रात दस बजे हम खाना खाकर लौटे। मैने फिर गर्म पानी मंगाया और गरारे किए। लेकिन आवाज़ खुलने की बजाए और बैठती जा रही थी। वेद पांडे गहरी नींद में सो चुके थे। मैं बाहर बालकनी में आ गया। हवाएं सर्द थीं। शाम को रोहित ने बताया था कि जोशीमठ में बरसात हुई है। मुझे अहसास होने लगा कि आगे बढ़ने पर मेरी तबीयत और बिगड़ सकती है। जोशीमठ में बरसात के साथ ठंड और बद्रीनाथ में कड़कड़ाती सर्दी। मौसम और बाहर के खाने से मुकाबले के लिए मेरा गला बिलकुल भी तैयार नहीं था। गला बिलकुल रुंध चुका था। जब अभी हालत ये तो निश्चित तौर पर आगे बढ़ने पर हालात और बिगड़ेंगे। ऐसे में इसे भगवान की कठिन परीक्षा मानने की भूल मैं नहीं कर सकता था। मैंने निर्णय लिया कि SHOW MUST GO ON, इससे पहले कि लाइव शो बर्बाद हो, बेहतर है किसी को अपनी जगह बुला लिया जाए।

रात 11 बज रहे थे। मैंने दिल्ली में अपने बॉस मिलिंद जी को फ़ोन लगाकर बताया कि सर, मुझे नहीं लगता कि मैं आगे Continue कर पाऊंगा। अच्छा हो अगर आप किसी और को भेज दें क्योंकि अभी तो स्थिति बिगड़ ही रही है, सुधार की प्रक्रिया तो कोसों दूर है। बॉस मेरी आवाज़ से मेरी बुरी हालत का अंदाज़ा लगा चुके थे। बोले, ठीक है तुम वापस आ जाओ। संयोग से संवाददाता रविकांत हरिद्वार में एक स्पेशल स्टोरी कवर करने आए हुए थे। दस मिनट बाद कि Co-ordination से प्रवीण यादव जी का फ़ोन आया कि कल सुबह 6 बजे रविकांत हरिद्वार से रुद्रप्रयाग के लिए निकलेंगे आप वेद पांडे के साथ उन्हे आगे के लिए रवाना करके उनकी गाड़ी में वापस लौट आइए। तुरंत ही रविकांत का भी फ़ोन आ गया, रविकांत हंसने लगे। बोले- स्क्रीन पर शेर की तरह दहाड़ने वाले एंकर को मिमियाते सुनकर बड़ा मज़ा आ रहा है। उन्होने मेरी वो मिमियाती आवाज़ रिकार्ड भी की। मैं भी हंस दिया।

मेरा दिल अफ़सोस से भर उठा था। मुझे वापस जाना होगा। मैंने उसी वक़्त वेद पांडे को जगाकर अपनी वापसी की ख़बर दी। वो भी स्तब्ध रह गए। थोड़ी देर तक खामोश बैठने के बाद हम दोनों सो गए। सुबह आंख खुली तो वेद भाई नब्ज़ पकड़कर मेरा बुख़ार देख रहे थे। बोले- कल रात लग रहा था तुम्हे वापस नहीं जाना चाहिए था लेकिन अब लग रहा है शायद तुम्हारा फ़ैसला सही था, तुम्हे तो Fever भी है। दवा खाने से पहले मैंने चाय के साथ तीन मट्ठियां खाईं। मट्ठियां वेद पांडे गाज़ियाबाद की किसी मशहूर दुकान से खरीदकर ले गए थे। वैसे भी अब बाहर का खाने से मुझे बचना था।

सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे। रविकांत का फ़ोन आया कि वो ऋषिकेश से आगे तक निकल आए हैं। अनुमान के मुताबिक उन्हे हम तक पहुंचने में वहां से तीन-साढ़े तीन घंटे लगने थे। मैने वेद पांडे से कहा कि चलो एटीएम तक चलते हैं, आपको बाक़ी की Production Money सौंपे देता हूं। एक बात ऊपर बताना भूल गया, वो ये कि एक दिन पहले जब मैं श्रीनगर के आप-पास था तो रुद्रप्रयाग के वरिष्ठ पत्रकार श्याम लाल सुंदरियाल जी का फ़ोन ऐसे ही आ गया। पूरे साल भले ही उनसे बात ना हो लेकिन बद्री-केदार के कपाट खुलने से पहले वो नियम से मुझे फ़ोन करके ज़रूर पूछते हैं- आ रहें हैं क्या अनुराग जी? इस बार भी उनका यही सवाल था। मैंने रुंधे हुए गले से कहा- आ रहा हूं दादा... बीच रास्ते में हूं... रुद्रप्रयाग पहुंचने वाला हूं.. उधर से आवाज़ आई कि कौन बोल रहा है? अनुराग जी से बात करनी है। मैंने लाख समझाया कि दादा मैं ही बोल रहा हूं पर वो नहीं माने और फ़ोन काट दिया। इस बार मैंने फ़ोन मिलाया और उन्हे बताया कि मैं अनुराग ही बोल रहा हूं.... आ रहा हूं... बीच रास्ते में हूं... रुद्रप्रयाग पहुंचने वाला हूं.. श्याम जी बोले- अनुराग भाई, आपकी आवाज़ साफ़ नहीं आ रही... लगता है नेटवर्क में कोई गड़बड़ है... आप रखो मैं करता हूं। मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही उन्होने फ़ोन काट दिया। फिर तुरंत उनका फ़ोन आया तो मैंने उन्हे अपने गले की स्थिति से अवगत कराया। मैंने उनसे कहा कि मैं रुद्रप्रयाग पहुंचकर उन्हे फ़ोन करता हूं। लेकिन गाड़ी के Accident और गले की परेशानी के चक्कर में मैं रुद्रप्रयाग आकर श्याम जी को फ़ोन करना ही भूल गया।

अब जब हम ATM के लिए निकल रहे थे तो फिर उनका फ़ोन आ गया। ATM पर उनसे मुलाकात हुई। बोले- मुझे लगा आप बिना मिले ही आगे निकल गए शायद। फिर उन्हे भी पूरी कहानी सुनाई। वो ढ़ांढस बंधाने लगे। बोले- सब ठीक हो जाएगा, चलिए पास ही में कोटेश्वर महादेव का मंदिर है, दर्शन कीजिए लाभ मिलेगा। रविकांत को आने में समय था, सो हम श्याम जी के साथ चल दिए। मैं इससे पहले भी लगभग बद्रीनाथ की अपनी हर यात्रा में कोटेश्वर महादेव ज़रूर जाता हूं। दिव्य मं
दिर है ये। गुफा में अड़तीस करोड़ देवी-देवताओं की स्वतः उत्पन्न मूर्ति चिन्ह और उनपर प्राकृतिक रूप से टपकता पानी। यहां पहली यात्रा में खींचा गया गुफा मंदिर का चित्र भी दे रहा हूं... हमने कोटेश्वर महादेव के दर्शन किए और उसके बाद मंदिर के मुख्य महंत शिवानंद जी से भेंट करने मंदिर प्रांगण में आ गए। बातचीत में शिवानंद जी को मेरे गले की समस्या का पता चला। बोले- अरे नहीं-नहीं आप वापस नहीं, बद्रीनाथ ही जाएंगे... अभी ठीक किए देता हूं आपको। उन्होने भभूति (राख) का मिश्रण सा दिया और बोले, इसे चबा-चबा कर खा लीजिए और दो घंटे तक पानी मत पीजिएगा। मैंने उनसे क्षमा मांगी और कहा कि मैं जल्दी से जल्दी दिल्ली पहुंचकर अपने डॉक्टर को ही दिखाना चाहूंगा। शिवानंद जी थोड़ी देर तक विश्वास के साथ आग्रह करते रहे। फिर बोले, जैसी आपकी मर्ज़ी। यहां उनसे क्षमा मांगता हूं। लेकिन मैं बेहद डरा हुआ था और कोई रिस्क लेना नहीं चाहता था।

प्रसाद लेकर हम वहां से वापस लौट आए। GMVN रुद्रप्रयाग में दोपहर का खाना खाया। रविकांत होटल पहुंच चुके थे। मेरे लौटने का समय आ गया था। रविकांत से गले मिलकर बस इतना ही कहा कि मुझे नहीं तुम्हे बुलाया था बद्री विशाल ने। रविकांत बोले, आपका भी प्रणाम कह दूंगा बद्री बाबा से। मैंने कहा- मत कहना, उनसे मैं ख़ुद ही निपट लूंगा। कहकर बद्रीनाथ मंदिर की दिशा में एक पल को निहारा और रविकांत की इंडिका में वापस हो लिया।

वापसी का सफ़र बेहद अफ़सोस और कष्ट भरा रहा। मैं उस रास्ते से वापस लौट रहा था जिसपर आगे बढ़ने पर मुझे भगवान बद्री विशाल के दर्शन होते। लेकिन शायद बद्री विशाल ने मुझे नहीं रविकांत को बुलाया था...

...और हां, जो लोग मेरी तबीयत को लेकर फिक्रमंद हैं उन्हे बता दूं कि मैं दिल्ली लौटते ही डॉक्टर गुलाब गुप्ता से मिल चुका हूं। गले का इंफेक्शन था। ठीक होने में समय लगेगा। मेरा वापसी का फैसला बिलकुल ठीक था। डॉक्टर की सलाह पर मुझे कम से कम तीन दिन खामोश रहकर गले को आराम देना होगा।