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Saturday, October 8, 2011

अन्ना का उग्र सत्याग्रह

पहले वोटिंग में ‘राइट टू रिजेक्ट’ की मांग करना और अब कांग्रेस को वोट ना देने की अपील करना अन्ना के मिशन का सकारात्मक पहलू कैसे हो सकता है जबकि ‘वोट ना देने’ का अन्ना ख़ुद कोई विकल्प नहीं सुझा पाते। कांग्रेस को वोट ना देने की बात कहकर अन्ना क्या होने देना चाहते हैं? यदि लोगों ने अन्ना की बात मान भी ली तो इस बात की गारंटी तो शायद अन्ना भी नहीं दे पाएंगे कि फिर जिस पार्टी या गठबंधन की सरकार बनेगी वो उससे ख़ुश होंगे ही। अगर ख़ुश नहीं होंगे तो क्या फिर उस पार्टी को भी वोट ना देने की अपील करेंगे? और सबसे बड़ा सवाल- ऐसा कब तक करेंगे? अन्ना को लगता है कि सरकार उनके साथ धोखा कर रही है। लेकिन अन्ना को मुश्किलों का सामना शायद इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि वो एक समानांतर न्यायिक व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल लाने पर इतना ज़ोर दे रहे हैं जबकि ये काम वो भ्रष्टाचार के लिए ज़िम्मेदार मौजूदा सुस्त कानूनी और न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त करने का कोई ठोस मसौदा तैयार करके भी कर सकते थे। जबकि सच्चाई ये है कि अन्ना अपने जनलोकपाल मसौदे को लेकर इतने महत्वाकांशी और केंद्रित प्रतीत होते हैं कि वो ना तो जयप्रकाश नारायण के जनलोकपाल को देखना चाहते हैं और ना अरुणा राय के जनलोकपाल को। वो तो बस अपने जनलोकपाल को इस देश की ज़िद बनाना चाहते हैं। ऐसे में अन्ना का पक्ष लेने वालों को ‘अन्ना कुछ भी असंवैधानिक नहीं कर रहे’ और ‘अन्ना कुछ भी असंवैधानिक नहीं कह रहे’ के अंतर को भी स्पष्ट करना होगा। अभी तो अन्ना के आंदोलन के तौर-तरीके को विशुद्ध रूप से गांधीवादी भी सही नहीं बता रहे। गांधीवादी अन्ना के आंदोलन को महात्मा गांधी मार्ग से विमुख बताते आए हैं। सरकार पर अन्ना के ताजे और तीखे बयान अन्ना के गुस्से और झुंझुलाहट की ओर इशारा करते हैं जो महात्मा गांधी में कभी नहीं देखे गए। अन्ना की ये ‘गांधीगीरी’, उग्र सत्याग्रह की नई परंपरा कही जा सकती है। जिसका महात्मा गांधी से कहीं कोई लेना-देना नहीं है। सच है कि अन्ना के आंदोलन से एक नहीं बल्कि कई एनजीओ स्थापित हो गए। भीड़ को अन्ना के रूप में महात्मा गांधी नज़र आए और आज़ादी के आंदोलनों का फ़ाइल फुटेज चलाने वाले मीडिया को एक ‘लाइव इवेंट’ मिला। लेकिन सवाल ये कि इससे देश को भी कुछ मिलेगा क्या? या फिर अन्ना ‘नत्था’ और रालेगण सिद्धि ‘पीपली गांव’ बनकर रह जाएंगे। रही बात भीड़ कि तो शाम तक सभी को अपने घर लौटने की जल्दी रहती है। भीड़ अन्ना के साथ किन परिस्थितियों में और कब तक बनी रहती है, कौन जाने? क्योंकि अब तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को एकजुट करने का प्रयास करने वाले अन्ना की टीम में भी वैचारिक मतभेदों की दरार दिखने लगी है। अन्ना की जयजयकार करने के बीच इस बात को समझने की फुर्सत भी निकाली जानी चाहिए कि अन्ना के समर्थन में लोग केवल भौतिक रूप से ही संगठित हैं या वैचारिक रूप से भी संगठित हैं? भ्रष्टाचार के विरोध से बात शुरू करके आज अन्ना इस हठयोग पर आमादा हैं कि शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल बिल पारित ना किए जाने पर कांग्रेस को वोट ना दिया जाए। यूपीए गंठबंधन की सरकार में अन्ना के निशाने पर सिर्फ कांग्रेस ही क्यों है? यही नहीं अपने इस ऐलान से वो इस देश के मतदाता के स्वैछिक मतदान के संवैधानिक अधिकार पर अपना एकाधिकार तक सुरक्षित करते प्रतीत होते हैं। राहुल गांधी ने ग़लत नहीं कहा है कि ‘भ्रष्टाचार से सिर्फ व्यवस्था में रहकर ही निपटा जा सकता है। जो लोग भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं वो राजनीति में आए और प्रयास करें।’ लेकिन अन्ना का तर्क है कि वो राजनीति में कभी नहीं आएंगे क्योंकि राजनीति में बहुत गंदगी है। अन्ना ने गंदगी हटाने के वादे पर भीड़ तो खूब जुटा ली लेकिन ये नहीं बता सके कि गंदगी में उतरे बिना गंदगी साफ कैसे होगी? जबकि अन्ना ख़ुद मानते हैं कि जनलोकपाल आने के बाद भी भ्रष्टाचार पर लगाम केवल सत्तर फीसदी तक ही लग सकेगी। यानि भ्रष्टाचार के सौ डायनासोर में से भी जनलोकपाल से केवल सत्तर ही खत्म हो सकेंगे, तीस जिंदा ही रह जायेंगे। क्या ऐसे में अन्ना का एजेंडा मात्र हॉलीवुडिया फ़िल्म ‘जुरासिक पार्क’ की ही एक कड़ी जान नहीं पड़ता। (9-10-11 को दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

Thursday, September 8, 2011

धमाके में मारे गए लोगों को तो मरना ही था..!

दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर धमाका हुआ। तमाम लोग मारे गए। आम आदमी से लेकर प्रधानमंत्री तक सबको बेहद अफसोस हुआ होगा। अफसोस से ज्यादा और हो भी क्या सकता था और विश्वास रखिए अफसोस से ज्यादा कुछ होने वाला भी नहीं है। मुआवज़ा मिलेगा। मुआवज़े से मरनेवाला तो वापस आएगा नहीं। हां, उस पैसे से खरीदकर लाई गई हवन सामग्री से मरने वालों की आत्मा की शांति के लिए यज्ञ और पूजा पाठ ज़रूर किया जा सकता है। अरे मज़ाक मत समझिए, अब और कर भी क्या सकते हैं भई? धैर्य और संयम रखा है ना आपकी अंटी में, तो निकालिए उसे अंटी से और बिलकुल खैनी के माफ़िक दबा लीजिए मुंह में।


अब मरने वालों का अफ़सोस कौन मनाए। ना प्रधनमंत्री के पैस टैम है ना गृहमंत्री के पास और ना हमारे-आपके पास। ऐसे हादसों में हताहतों के लिए आंसू बहाने के लिए तो भईया ओवर टाईम करना पड़ेगा, वरना यहां अपनी सलामती के लिए संघर्ष करने से फुर्सत ही कहां मिल पाती है। नौकरी-पेशे के अलावा पूरा दिन और आधी रात इसी उधेड़बुन में निकल जाती है कि सब्जियां, आटा, दाल और चावल सबसे सस्ते कहां मिल रहे हैं। ईमानदारी की कमाई में महीने के तीसों दिन दो वक्त की दाल-रोटी के वांदे हो रहे हैं और इक्कतीस के महीने में तो एक दिन व्रत रखना पड़ जाता है। ये हाल तो तब है जब घर में दो कमाने वाले हों, एक कमाई वाले घर में तो सोमवार, मंगलवार अथवा बृहस्पतिवार का मासिक व्रत रखे बगैर काम ही नहीं चलता। ऐसे में जब अपनी जान के लाले पड़े हों, दूसरे के दुखः में अफसोस जताना उसे मिलने वाले सरकारी मुआवजे से भी ज्यादा बड़ा योगदान है।


वह तो अच्छा है कि हमने धैर्य और संयम की घुट्टी घोंट कर पी रखी है वरना हम तो बिना किसी हादसे के दहशतगर्दी का मंजर देखकर ही कब के मर जाते। हम जिंदा ही इसलिए हैं क्योंकि हमने धैर्य और संयम का अमृत पी लिया है। हम अजर-अमर हो चुके हैं। हमने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। अब हमारा कोई कुछ भी बिगाड़ ले हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम जानते हैं कि जीना और मरना तो उपर वाले के हाथ में है बाबू मौशाय, अरे, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं रे, किसे कब, कैसे और कहां उठना है इसकी डोर तो ऊपरवाले के हाथ में हैं। हा... हा... हा...। जो इस दुनिया में आया है उसे तो एक न एक दिन इस दुनिया से रुखसत होना ही है। फिर इससे अच्छी विदाई भला क्या हो सकती है कि कुछ भोले-भाले निरीह इंसानों के पता ही न चले कि उनकी मौत दहशतगर्दों के गाल पर एक करारा तमाचा बन गई है। दहशतगर्दी के गाल पर जो तमाचा कभी न मार कर सरकार कुसूरवार बन गई वह तमाचा कुछ बेकसूरों ने मार दिया। और वैसे भी धमाके में मारे गए लोगों को आज नहीं तो कल मरना ही था। सबको मरना है। लेकिन वो अपनी मौत मरते तो शायद गुमनाम ही रह जाते, अब कम से कम आतंकवादियों के गाल पर तमाचा जड़ने वाले मृतकों की सरकारी सूची में अपना नाम तो दर्ज करा गए।


अब देखिए इसमें करना कुछ नहीं है। टेंशन लेने का नई। बस, धैर्य और संयम के साथ काम लेना है। धैर्य और संयम का यह संशोधित अध्याय है। जिसका अंत पूर्ववत पंक्ति से ही होता है कि दहशतगर्दी चाहे देश से बाहर को हो या आंतरिक, अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। धैर्य और संयम के इस संशोधित अध्याय में आतंकवाद की कड़े शब्दों में निंदा करने को इस बार विशेष महत्व दिया गया है। कुल मिलाकर धैर्य और संयम के सब्जेक्ट में सभी का कम से कम स्नातक होना अनिवार्य किए जाने के संबंध में ठोस योजना तैयार किए जाने पर काम चल रहा है। दहशतगर्दों से लड़ने के लिए धैर्य और संयम के स्नातकों की फौज तैयार की जा रही है। आने वाले समय में धैर्य और संयम की थ्योरी और प्रयोगों को भलि-भांति समाझाने के लिए अतिरिक्त कक्षाएं लगाए जाने की भी संभावनाएं हैं। धैर्य और संयम के इस कोर्स को कालांतर में परास्नातक के लिए भी अनिवार्य कर दिया जाएगा। धैर्य और संयम पर गेस्ट लेक्चर के लिए बराक ओबामा और यूसुफ़ रज़ा गिलानी को आमंत्रित भी किया जा सकता है। समय-समय पर धैर्य और संयम पर अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार आयोजित करा कर 'वर्तमान संदर्भों में इसकी महत्ता' विषय पर समीक्षा भी कराई जाती रहेगी। सेमिनार की प्रचार सामग्री पर एक विशेष नोट लिखा होगा- समीक्षा में धैर्य और संयम की अलोचना मान्य नहीं होगी, धैर्य और संयम की आलोचना को दहशतगर्दी की मानसिकता से प्रभावित और प्रेरित माना जाएगा। इस संबंध में विधेयक जनलोकपाल से पहले पेश और पास किया जाएगा।


मुझे धैर्य और संयम के इस पाठ्यक्रम का भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है। क्योंकि आने वाले समय में धैर्य और संयम के हथियार से हमें केवल आतंकवाद और भ्रष्टाचार को ही मुंह तोड़ जवाब नहीं देना है बल्कि आसमान से चुंबनरत महंगाई का मुकाबला भी करना है। हमें न्याय की खोखली आस में हर अन्याय का सामना धैर्य और संयम के साथ ही करना है। धैर्य और संयम के बेहतर प्रचार-प्रसार के लिए हम गांधीजी के तीन बंदरों की तरह धैर्य और संयम के बंदर भी बना सकते हैं। जिसमें धैर्य का बंदर बिजली के करंट प्रवाहित तारों से चिपका होगा और संयम का बंदर पूरी सहजता के साथ चुपचाप नीचे खड़ा यह तमाशा देख रहा होगा। यहां निजी अनुभव के आधार पर बताना चाहूंगा कि धैर्य और संयम का पाठ कंठस्थ करने के लिए गीता-सार का भी अध्ययन करें और जिन लोगों का धैर्य और संयम जवाब दे रहा है उन्हे भी गीता का सार पढ़ने से विशेष लाभ होगा। फिर देखिएगा धीरे-धीरे धैर्य और संयम कैसे हमारी राष्ट्रीय भावना बन जाएगा। क्या ख़्याल है आपका...?

Thursday, June 2, 2011

- आपका ND Tiwari.

DNA Sample ना देने की अपील करते हुए ND Tiwari ने कोर्ट को लिखी चिट्ठी में सिर्फ़ ये चार लाइनें लिखी हैं-

माननीय जज साहेब,

'कुड़ियों का नशा प्यारे, नशा सबसे नशीला है,
जिसे देखो यहां वो हुस्न की बारिश में गीला है,
इशक़ के नाम पर करते सभी अब रासलीला हैं,
.........मैं करूं तो साला करैक्टर ढ़ीला है!'

- आपका
ND Tiwari.

Thursday, April 21, 2011

सत्य साईं- डायलासिस पर 'भगवान'


सत्य साईं की हालत गंभीर हो गई है। हवा में हाथ लहराकर भक्तों के लिए स्विस घड़ियों से लेकर लड्डू तक प्रकट कर देने का कथित चमत्कार करने वाला ये बाबा अपने लिए ही कोई चमत्कार कर पाने में असमर्थ है। असहाय है। बाबा के भक्त ये सोच कर अपने आंसू पोछ रहे हैं कि जीवन और मृत्यु से तो भगवान भी हारे हैं अस्पताल से जारी मेडिकल बुलेटिन में भी सत्य साईं को भगवान कह कर संबोधित करने वाले बाबा के अनुयायी ज्ञानी डॉक्टर, भावावेश में भगवान की परिभाषा को सत्य साईं पर समर्पित किए दे रहे हैं। जबकि भगवान तो किसी को मरणोपरांत ही कहा जाता है। फिर भी, सत्य साईं अपने भोले भक्तों के लिए वर्षों से भगवान कहलाते हैं।

कलयुग में भगवान को डायलिसिस पर भी देखना लिखा था। यही कलयुग भी है शायद। ईश्वरीय शक्तियों के सामावेश का दावा करने वाले किसी कथित महापुरुष की इतनी दयनीय हालत पहली बार देखी है। कहीं पढ़ा था कि बाबा में चमत्कार करने की कूवत बचपन से ही थी और जब बाबा दुनियादारी समझने लगे तो ख़ुद को शिरडीवाले साईं बाबा का अवतार घोषित कर दिया। बाबा के चमत्कारों से अभिभूत भीड़ ने बाबा का जयघोष कर डाला। फिर दुनिया ने बाबा का चमत्कार देखा और बाबा ने, फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कहावत है कि पीठ पीछे लोग भगवान की आलोचना करने से भी बाज नहीं आते, लिहाज़ा सत्य साईं भी गैर विवादित नहीं रहे। बाबागीरी की दुनियादारी में विवाद अक्सर ख्याति का कारक रहे हैं। सत्य साईं को भी लाभ हुआ। और उन्होने फिर ये लाभ समाज को लौटाया भी। ख़ुद ज़्यादा पढ़-लिख ना सके सत्य साईं ने दुनिया में सैंकड़ों शिक्षण संस्थान भी खोले। वो समाजसेवा करके भगवान बने या भगवान बनकर उन्होनें समाजसेवा की, ये उनके प्रशंसकों और आलोचकों के बीच बहस का मुद्दा हो सकता है।

छियानवे वर्ष की आयु में समाधि लेने की घोषणा करने वाले सत्य साईं के अंग उनके दावे की विश्वस्नीयता कायम नहीं रख पा रहे हैं। शिरडी साई बाबा के समाधिस्थ होने के आठ साल बाद आंध्रप्रदेश के पुट्टापर्थी में जन्में सत्यनारायण राजू जीवन रक्षक तंत्रों की सुविधा पाने के मामले में शिरडी साईं बाबा से ज़्यादा लकी निकले। छियानवे वर्ष की आयु में महासमाधि की घोषणा करने वाले सत्य साईं पिच्यासीवें साल में ही डायलासिस पर लेटे हैं। साईं की ये कौन सी लीला है, भक्तों की समझ से परे है। वो जल्दी ही स्वास्थ्य लाभ लें, यही कामना है।

मुझे सत्य साईं की सत्यता या असत्यता प्रमाणित करके उन्हे सच्चा या झूठा प्रचारित करने की लालसा नहीं है। लेकिन ईश्वरीय शक्तियों के कथित प्रतिनिधियों से हमेशा ही मुझे यह शिकायत रहीं है कि वो सदैव परपीड़न-कामुक अर्थात सेडिस्ट रहा है और पीड़ित ने हमेशा अपने दुखों को अपने पापों का फल समझकर भोगा है। लोगों के दुख दर्द भगवान के अधिकार क्षेत्र से हमेशा ही बाहर रहे हैं। भगवानलोग हमेशा से केवल परीक्षक और जादूगर की भूमिका में ही रहे हैं। सत्य साईं ने भी उसी परिपाटि का ग्रंथानुसरण किया है। पुट्टापर्थी जैसे छोटे से गांव का रेलवे स्टेशन तो अंतरर्राष्ट्रीय स्तर का है लेकिन रेलवे स्टेशन पर भिक्षुओं की परंपरा पर सत्य साईं का भी वश नहीं रहा। इस भगवान ने भी अपनी सामर्थ्य का दिखावा दिल खोल कर किया। फूटी कौड़ी भी ना जोड़ पाए शिरडी साईं के इस कथित अवतार के ट्रस्ट के खाते में लगभग 40,000 करोड़ से भी ज़्यादा रूपए जमा हैं। भगवानलोगों ने प्रत्येक युग में अपनी भव्यता और विलासिता का पूरा इंतज़ाम किया है और पीड़ित, असहाय, दुखी, दरिद्र और बीमार लोगों के बीच अपना आसन लगाया है जो उन्हीं लोगों ने कालांतर में मंदिरों में तब्दील कर दिया।

कोई भगवान अथवा संत दुनिया से दरिद्रता और दुख नहीं मिटा पाया। इस मामले में भगवानों के ख़ुद दरिद्र और दुखी होने के प्रमाण भी मिलते हैं। सत्य साईं के जीवनकाल में भी ऐसा ही समय चल रहा है। वैसे मीडिया सहित कई सूचना एवं संचार माध्यमों के भरपूर इस युग में सत्य साईं शायद उतना जलवा कायम नहीं कर पाए जितना प्रचार-प्रसार माध्यमों के अभावकाल में शिरडी साईं बाबा ने सिर्फ़ 'भगवान भला करेगा, अल्लाह भला करेगा' कह कर दिया। शिरडी साईं के असीम प्रभाव के समक्ष उनका ये कथित अवतार सीमित ही रह गया। ये मेरे निजी विचार भी हो सकते हैं। मेरे विचारों से यदि किसी की भावनाएं आहत हुईं हैं तो मैं क्षमाप्रार्थी भी हूं।

ये भगवान बनने और भगवान बन कर सैलिब्रटी हो जाने का युग है। ये विश्वास और अंधविश्वास के झीने अंतर को खारिज करके अंधभक्ति में डूब जाने का युग है। यहां भक्तों से ज़्यादा संख्या में भगवान होने लगे हैं। भक्त लोग जादू और चमत्कार में भेद करने का पाप नहीं करते और उनका यही भक्तिभाव किसी भी युग में अपना भगवान चुनता है। फिर ये भक्त अपने भगवान को डायलासिस पर देख कर व्यथित क्यों ना हों। मैं असमंजस में हूं कि 'भगवान' के स्वास्थ्य लाभ की कामना करूं भी तो किससे?

Saturday, April 9, 2011

अण्णा हज़ारे LIVE


इतिहास को बनते देखना, बदलते देखना और 9 अप्रैल की तारीख़ को इतिहास की किताब में आंखों के सामने दर्ज होते देखना किसी क्रांतिकारी फिल्म का पर्दे से निकलकर सार्थक होने जाने जैसा था। ये जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर अण्णा हज़ारे का जंतर-मंतर पर अनिश्चितकालीन अनशन था। अण्णा 5 अप्रैल से अनशन पर बैठे थे। और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कोई पहली बार नहीं बैठे थे। इससे पहले भी समाज के कमज़ोर वर्ग का ये समाजसेवी मसीहा किसन बापट बाबूराव हज़ारे, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 1995 से युद्ध के मैदान में है। बिना खड़ग, बिना ढाल। जिन्होने महात्मा गांधी को नहीं देखा उन्होने अण्णा हज़ारे को देखा। इस बार सत्याग्रह दिल्ली के जंतर-मंतर पर था। हालांकि इसपर दोराय हो सकती है क्योंकि आलोचनाओं का स्वागत करने की गुंजाइश हमेशा छोड़ देनी चाहिए।

लेकिन फिर भी ये सच है कि जंतर-मंतर पर पूरी दुनिया ने एक मैजिक शो होते देखा। सरकारी फ़ाइलों में 40 साल पहले ग़ायब हुआ एक बिल, बाबा अण्णा हज़ारे के छड़ी घुमाते ही बाहर निकल आया। शासन करने वाली सरकार बाबा की डुगडुगी के आगे झमूड़ा बन गई। अण्णा हज़ारे की पांचो मांगे सरकार ने मान ली। अण्णा के नेतृत्व में जनता की जीत हुई, देश की जीत हुई, लोकतंत्र की जीत हुई।

......लेकिन ये सब इतना आसान भी नहीं था। और ना ही इतना मुश्किल भी। बस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ क़ानून की मांग को लेकर एक सकारात्मक शुरूआत की आवश्यकता थी, जो अण्णा ने दी। लेकिन अण्णा ही क्यों? अपनी योगशक्ति से दस-पंद्रह दिन भूखे रहकर अनशन करने का काम तो बाबा रामदेव भी कर सकते थे। ....कोई भी कर सकता था। इस देश में हज़ारों लोग नवरात्रों में नौ दिन उपवास रखते ही हैं। फिर अण्णा ने ऐसा क्या कमाल कर दिया जो इससे पहले और कोई नहीं कर पाया? इसका जवाब शायद ये हो सकता है कि अण्णा, मोह-माया, भोग-विलास और सत्ता मद से बहुत दूर हैं। अण्णा को भविष्य में कोई राजनैतिक पार्टी नहीं बनानी, बल्कि उन्हे तो देश की जनता को जोड़कर आज़ाद हिन्द फौज बनानी है।

जो काम देश के बड़े-बड़े चतुर-चालाक नहीं कर पाए वो भोले-भाले अण्णा ने कर दिया। एक मंदिर के आहते में बने 8 बाई 10 के कमरे में रहने और बर्तनों के नाम पर एक थाली में खाने वाले अण्णा ने कमाल कर दिया। महात्मा गांधी भी शायद इसलिए ही कर पाए थे।

अण्णा का अनशन प्रायोजित नहीं था। होता, तो शायद वो भी अभूतपूर्व होता। लेकिन नहीं था। मैंने अनशन के तीसरे दिन मैनेजमैंट गुरू अरिंदम चौधरी को भी अण्णा से मिलने के लिए धक्के खाते देखा, इस देश के आम आदमी से भी ज़्यादा दयनीय हालत में, जबकि इस देश के आम आदमी के लिए अण्णा से मिलना उतना ही आसान रहा जैसे किसी को अपने पिता से मिलना हो। अण्णा कभी भी मुद्दे को छोड़कर अन्य किसी शह से प्रभावित नहीं हुए और यही कारण है कि जो लोग कल तक अण्णा को जानते तक नहीं थे वो अपने नंगे बदन पर ‘मैं अण्णा हज़ारे हूं’ लिखकर घूम रहे थे। विशेषकर युवावर्ग। अपने बेहतर भविष्य के लिए विदेश की ओर टकटकी लगाए युवावर्ग को इसे देश के नागरिक होने का कर्तव्य याद दिलाकर इसे बेहतर बनाने की मुहिम का हिस्सा बनने पर मजबूर करना जीवट का काम है। अण्णा रातोंरात ही लोगों के रोल मॉडल नहीं बन गए। बल्कि ये करिशमा अण्णा के व्यक्तित्व से टपकते अनुभव और आंखों से झलकती ईमानदारी का था। ऐसा ही निःस्वार्थ नेतृत्व तो देश को चाहिए था, जो देश को अपनी महत्वाकांशा की अग्नि में ना झोंक दे। जो लोगों को न्याय की फोटू दिखाकर मूर्ख ना बनाए।

मुझे जंतर-मंतर जाने का सौभाग्य अनशन के तीसरे दिन हुआ। सुबह आठ बजे से लाइव करना था। 8 अप्रैल की सुबह वहां पहुंचा तो किसी आम प्रदर्शन जैसा ही लगा वहां का माहौल। फिर जैसे-जैसे दिन के साथ अण्णा की मुहिम पर रंग चढ़ते देखा तो एक बार को मुझे भी लगा कि अण्णा कहीं ‘पीपली लाइव’ के नत्था तो नहीं बन रहे हैं? ‘अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’, जब तक सूरज-चांद रहेगा अण्णा तेरा नाम रहेगा...., और भी ना जाने कितने ही तुकबंदी के नारों से अटा पड़ा था माहौल। लेकिन जब लोगों से बात करनी शुरू की तो अहसास हुआ कि मैं शायद ग़लत सोच रहा था, ये भीड़ जुटाई नहीं गई है बल्कि ख़ुद-ब-ख़ुद जुटी है। कौन-कौन नहीं था उस भीड़ में। अण्णा ने किसी आमो-ख़ास को नहीं बुलाया था। अण्णा ने तो बस आवाज़ लगाई थी और कारवां बनता गया। हां, अण्णा के अनशन को भुनाने वालों की भी भरमार भी। अण्णा के साथ फ़ोटो खिंचाकर, उनके साथ मंच पर एक बार एंट्री मारकर, उनकी इस मुहिम में अपने दल-बल के साथ शामिल होकर कितने ही लोग और एनजीओ बहते पानी में हाथ धोने को बेताब थे। कई लोंगो के लिए जंतर-मंतर पहुंचना स्टेटस सिंबल बन गया था। कई महिलायें ब्यूटी पार्लर से सीधे अण्णा के अनशन स्थल पहुंचकर मीडिया को रिझाती मिलीं। कितने ही लड़के-लड़किया वहां डेटिंग कर रहे थे, पिकनिक मना रहे थे। सीधे-सपाट शब्दों में कितने ही लोग मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री’ को जीते हुए मिले। लेकिन इस सबके बावजूद सिक्के का दूसरा पहलू ज़्यादा प्रभावी साबित हुआ और वो ये कि लोग आए.... लोग जुड़े....।

तिहत्तर साल के नॉन ग्लैमरस् अण्णा हज़ारे की एक आवाज़ पर भ्रष्टाचार जैसे थके हुए और घिसे-पिटे मुद्दे पर इकट्ठा हुए लोगों का ग़ुस्सा उनके चेहरों की तरह लिपापुता नहीं था, ये बड़ी बात थी। अगर भ्रष्टाचार को लाइलाज बीमारी बताकर झेलते रहने वालों को भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की उम्मीद बंधी है तो ये अण्णा के दृढ़संकल्प का ही परिणाम है।

भ्रष्टाचार को लेकर इतने बड़े पैमाने पर लोगों का संगठित होना कई नकारात्मक आशंकाओं को धव्स्त करते हुए सफलता की गारंटी देता है। भ्रष्टाचार मिटेगा या नहीं ये बाद की बात है, अभी यही क्या कम है कि एक शुरूआत तो हुई। एक ठोस और सकारात्मक शुरूआत। अण्णा के विश्वास के संक्रमण से प्रभावित जनता ने कम से कम एक पत्थर तो तबियत से उछाला ही है। अण्णा के नेतृत्व में ये जनता के सहयोग से जनता की लड़ी गई सबसे बड़ी लड़ाई कही जा सकती है। सबसे बड़ी इसलिए क्योंकि ये लड़ाई किसी कॉर्पोरेट घराने के दमखम पर नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से जनता के आत्मबल से लड़ी गई है। हां, ये भी सच है कि हाल ही मिस्र में लड़ी गई जनता की लड़ाई के परिणाम से प्रभावित इस देश के लोगों को अपनी ताक़त पर यानि आम आदमी की ताक़त पर भी भरोसा हो गया।

मीडिया की भी इस मुहिम में बड़ी ज़िम्मेदारी भरी भूमिका रही, ये अण्णा ने भी माना। मैंने पहली बार मीडिया को गाली देने वाले समाज को मीडिया की प्रशंसा करते देखा। फ़ेसबुक और ट्विटर जैसा सोशल नेटवर्किंग साइटस् ने भी इस आंदोलन को अभूतपूर्व बनाने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ी। देश में शायद पहली बार संचार माध्यमों का इतना सटीक इस्तेमाल होते देखा गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जनता की सबसे बड़ी लड़ाई में मिली ऐतिहासिक जीत के लम्हों का गवाह बनकर मैं गौरवांवित महसूस कर रहा हूं। अपने चैनल की तरफ से इस महाकवरेज का हिस्सा बनकर मैं भी इसमें शामिल रहा और वो भी अण्णा के इतने करीब, जंतर-मंतर पर रहकर। बस, अफ़सोस इस बात का रह गया कि लाइव कवरेज की व्यस्तता के चलते इस मुहिम के रंगों को अपने SLR कैमरे में क़ैद नहीं कर पाया। लेकिन हज़ारों कैमरों में ये ऐतिहासिक पल क़ैद हुए इसका संतोष ज़रूर है।

अण्णा की कोशिशों से 9 अप्रैल की तारीख़ जनता की जीत के तौर पर इतिहास के पन्नों में दर्ज तो हो गई लेकिन याद तभी रखी जाएगी जब ये अलख जलती रहे। जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इसके बाद किसी आमरण और अनिश्चितकालीन अनशन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तभी सही मायनों में अण्णा की मुहिम अपने अंजाम तक पहुंचेगी। इस संकल्प के पौधे को यदि निरंतर नहीं सींचा गया तो ये मुरझाकर सूख भी जाएगा। इस जीत के जश्न में मकसद याद रखना होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एकजुट होने के लिए इस बार जैसे लोगों ने अपनी व्यस्तता के बीच भी समय निकाला है इसे अब उन्हे अपनी आदत बनाना होगा।

लोकतंत्र की ये कथित जीत आप सभी को मुबारक हो।